गैरसैंण में विधानसभा भवन निर्माण में पर्यावरणीय मानकों की हो रही अनदेखी
चमोली जिले के गैरसैंण में उत्तराखंड विधानसभा भवन के निर्माण में पर्यावरणीय मानकों की अनदेखी हो रही है।
देहरादून, [केदार दत्त]: गैरसैंण (भराड़ीसैंण) में उत्तराखंड विधानसभा भवन के निर्माण में पर्यावरणीय मानकों की अनदेखी के मामले से सरकार के लिए मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं। वहां बिना पर्यावरणीय स्वीकृति के ही निर्माण कार्य कराए गए। नियमानुसार कार्य शुरू होने के छह माह के भीतर राज्य स्तरीय पर्यावरण प्रभाव निर्धारण प्राधिकरण (सीआ) या फिर केंद्र सरकार की एन्वायरनमेंट अप्रेजल कमेटी (ईएसी) से यह स्वीकृति लेनी जरूरी थी। फिर भी ऐसा नहीं किया गया। मामला नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) में पहुंचने पर अब पर्यावरणीय स्वीकृति की याद आई है। वहीं, सीआ का कहना है कि मामले में एनजीटी के फैसले के बाद कार्रवाई अमल में लाई जाएगी।
उत्तराखंड आंदोलन की भावनाओं का केंद्र रहे गैरसैंण (चमोली) को राज्य की राजधानी बनाने की मांग लगातार उठती रही है। इसे देखते हुए सरकार ने गैरसैंण में भी विधानसभा भवन बनाने का निर्णय लिया। गैरसैंण से करीब 14 किमी के फासले पर भराड़ीसैंण में इसके निर्माण के मद्देनजर वर्ष 2013 में शिलान्यास किया गया। विधानसभा परिसर के निर्माण का जिम्मा नेशनल बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन कंपनी (एनबीसीसी) को सौंपा गया। 2014 से निर्माण कार्य शुरू हुआ।
गुजरे चार सालों में विस भवन, मंत्रियों, विधायकों के साथ ही अफसरों के आवास बनकर तैयार हो चुके हैं। हैरानी की बात यह है कि पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील राज्य होने के बावजूद भराड़ीसैंण में विस परिसर के निर्माण में इसी पहलू की अनदेखी कर दी गई। यह है नियम पर्यावरण संरक्षण अधिनियम में प्रावधान है कि 20 हजार वर्ग मीटर से ज्यादा भूमि में होने वाले किसी भी भवन समेत अन्य निर्माण कार्य के लिए पर्यावरणीय स्वीकृति अनिवार्य रूप से ली जाए।
पर्यावरणीय स्वीकृति राज्य स्तर पर गठित सीआ और सीआ के अस्तित्व में न रहने पर इएसी से लेनी अनिवार्य होती है। यह स्वीकृति निर्माण कार्य शुरू होने के छह माह के भीतर लेनी आवश्यक है। भराड़ीसैंण में विधानसभा परिसर 25845 वर्ग मीटर में बना है। सिस्टम की कार्यशैली पर सवाल गैरसैंण में जब विधानसभा भवन का निर्माण शुरू हुआ, तब प्रदेश में सीआ अस्तित्व में थी। सीआ का पिछला कार्यकाल जनवरी 2016 में खत्म हुआ। फिर भी सीआ से पर्यावरणीय स्वीकृति नहीं ली गई।
सीआ के अस्तित्व में न होने पर इएसी से इसे प्राप्त किया जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं किया गया। इस बीच मामला एनजीटी में पहुंचा तो पर्यावरणीय स्वीकृति की याद आई। एनबीसीसी की ओर से 10 अप्रैल 2018 को इसके लिए आवेदन किया गया, मगर तबसीआ अस्तित्व में नहीं थी। प्राधिकरण का गठन अगस्त में हुआ। ऐसे में सिस्टम की कार्यशैली पर सवाल उठने लगे हैं। भारी पड़ सकती है अनदेखी पर्यावरणीय स्वीकृति की अनदेखी भारी पड़ सकती है। पर्यावरण संरक्षण अधिनियम में इसका उल्लंघन करने पर पांच साल की सजा और एक लाख रुपये के जुर्माने का प्रावधान है।
एनजीटी के फैसले का किया जा रहा है इंतजार
डॉ.एसएस नेगी (अध्यक्ष, राज्य स्तरीय पर्यावरण प्रभाव निर्धारण प्राधिकरण, उत्तराखंड) का कहना है कि इस मामले में एनजीटी के फैसले का इंतजार किया जा रहा है। इसके बाद पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के प्रावधानों के तहत कार्रवाई पर अमल किया जाएगा।
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