सियासत की अनूठी शैली ने हरीश रावत को प्रदेश की राजनीति में अब भी प्रासंगिक बनाए रखा
सत्ताधारी दल का वर्तमान मुख्यमंत्री चुनाव में स्वाभाविक चेहरा होता है। तो क्या प्रदेश में इस बार चुनावी लड़ाई रावत बनाम रावत होगी। फाइल चुनाव से पहले नेता घोषित करने की रावत की मुहिम का असर देर-सवेर अन्य राज्यों में भी दिख सकता है।
देहरादून, कुशल कोठियाल। कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव एवं पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत खुद को हर माहौल में प्रासंगिक बनाए रखने का हुनर रखते हैं। प्रदेश में पिछला चुनाव उनके नेतृत्व में कांग्रेस बुरी तरह हारी, साथ ही आधे से ज्यादा कांग्रेस भाजपा में समा गई। बावजूद इसके 72 की उम्र में उत्तराखंड कांग्रेस में उनका कोई तोड़ पार्टी नेतृत्व के पास नहीं है। सियासत की अनूठी शैली ने उन्हें प्रदेश की राजनीति में अब भी प्रासंगिक बनाए रखा है और कांग्रेस में अपरिहार्य।
इस बार प्रदेश विधानसभा चुनाव से ठीक एक साल पहले ही वह कांग्रेस हाईकमान से चेहरा घोषित करने की मांग छेड़ चुके हैं। इस मांग को वह खुलेआम मुहिम का रूप भी देने में लगे हुए हैं। पार्टी के अधिसंख्य विधायक एवं नेता उनके साथ खड़े दिख रहे हैं। कुछ कांग्रेसी कद्दावर तो हरीश रावत को उत्तराखंड का हुड्डा कह कर प्रचारित कर रहे हैं। मतलब यदि रावत की उपेक्षा की गई तो पार्टी सत्ता में आने से चूक जाएगी। चुनावी लड़ाई का सेनापति घोषित करने की मांग से न केवल कांग्रेस, बल्कि राज्य की सभी राजनीतिक ताकतें भिन्न-भिन्न कारणों से प्रभावित दिख रही हैं।
रावत ने प्रदेश में सेनापति घोषित करने का खम ऐसे समय में ठोका है, जब नव नियुक्त प्रदेश प्रभारी देवेंद्र यादव पार्टी के खेमेबाज नेताओं में समन्वय बनाने का प्रयास कर आगामी चुनाव सामूहिक नेतृत्व में लड़ने का अभियान चला रहे हैं। वह रावत के कद का सम्मान करते हुए प्रांतीय नेताओं को आगे लाने की नीति पर चल रहे थे, लेकिन रावत ने वक्त गंवाए बिना सामूहिक नेतृत्व में चुनाव लड़ने से इन्कार कर दिया और चुनावी लड़ाई से पहले सेनापति घोषित करने की मांग कर डाली। पार्टी हाईकमान ने तो उन्हें पंजाब का प्रभारी बना कर राज्य के बाहर सम्मान के साथ व्यस्त रखने का भरपूर इंतजाम कर दिया था, लेकिन रावत शायद इस सम्मान के निहितार्थ समझ गए और झट से प्रदेश की राजनीति में सक्रिय हो गए।
वह सर्दी के इस मौसम में पहाड़ी इलाकों को सैलानी बन कर नहीं नाप रहे, बल्कि हाईकमान को यह बता रहे हैं कि कांग्रेस का ऐसा चेहरा कौन है, जो राज्यभर में जाना-पहचाना जाता है। लगे हाथ मतदाताओं और कार्यकर्ताओं के साथ संबंधों को गरमा भी रहे हैं। जब कांग्रेस के ही कुछ नेताओं ने पार्टी को असहज करने वाली उनकी इस मुहिम पर सवाल खड़े किए तो रावत ने एक और गुगली छोड़ दी। स्पष्ट करते हुए कहा कि चेहरे की इस दौड़ में वह खुद को बाहर करते हैं, लेकिन चुनाव से पहले चेहरा तो घोषित करना ही पड़ेगा।
जाहिर है कि उत्तराखंड में माइनस रावत कांग्रेस के बारे में क्या हाईकमान सोच भी पाएगी, शायद यही सोचने के लिए वह कांग्रेस नेतृत्व को मजबूर भी कर रहे हैं। ऐसा नहीं कि रावत के इस पैंतरे की प्रतिक्रया केवल कांग्रेस में ही हो, भाजपा भी इस पर मंथन कर रही है। रावत के इस राग को कांग्रेस का अंदरूनी मामला कह कर खारिज करने वाले नेता भीतर ही भीतर चेहरों की लड़ाई में अपना भी आकलन कर रहे हैं। सत्ताधारी दल का वर्तमान मुख्यमंत्री चुनाव में स्वाभाविक चेहरा होता है। तो क्या प्रदेश में चुनावी लड़ाई रावत बनाम रावत होगी। सत्ताधारी दल के कुछ नेता तो इसमें कांग्रेस में एक और टूटन का खाका भी खींच रहे हैं। यदि ऐसा हुआ तो भाजपा किस हद तक लाभार्थी हो सकती है।
रावत के तेवर और तरीका देखते हुए प्रदेश की राजनीति में हाल में सक्रिय हुई आप भी उत्साहित दिख रही है। आप प्रदेश में अदद एक कद्दावर नेता की तलाश में है। राजनीतिक हलकों में तो चर्चा है कि रावत की मुहिम कहीं आप की मनोकामना तो पूरी नहीं करने जा रही। हालांकि कांग्रेस के प्रति उनकी निष्ठा प्रामाणिक रही है। जब वर्ष 2012 में अधिसंख्य विधायक साथ होने के बावजूद मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को बनाया गया तो वह दो सप्ताह कोप भवन में जरूर रहे, लेकिन रहे कांग्रेस के साथ ही।
[राज्य संपादक, उत्तराखंड]