Haridwar Kumbh Mela 2021: आध्यात्मिक उत्थान को किया जाने वाला सम्मेलन ही कुंभ
Haridwar Kumbh Mela 2021 सामान्य मेलों का स्वरूप विशुद्ध रूप से भौतिक होता है जबकि कुंभ मेलों का आध्यात्मिक। सामान्य मेले कहीं भी आयोजित किए जा सकते हैं जबकि कुंभ मेले नियत समय और स्थान पर ग्रह-नक्षत्रों के विशिष्ट योग में ही आयोजित होते हैं।
दिनेश कुकरेती, देहरादून। Haridwar Kumbh Mela 2021 सामान्य मेलों का स्वरूप विशुद्ध रूप से भौतिक होता है, जबकि कुंभ मेलों का आध्यात्मिक। सामान्य मेले कहीं भी आयोजित किए जा सकते हैं, जबकि कुंभ मेले नियत समय और स्थान पर ग्रह-नक्षत्रों के विशिष्ट योग में ही आयोजित होते हैं। कहने का तात्पर्य आध्यात्मिक उत्थान संबंधी धार्मिक अनुष्ठानों की पूर्ति के लिए एक ही स्थान पर एकत्रित होने वाले धार्मिक एवं श्रद्धावान जनसमुदाय के सम्मेलनों को कुंभ कहा जाता है। विष्णु पुराण में उल्लेख है कि बारह कुंभ पर्वों में से मनुष्य को पापमुक्त करने के लिए चार कुंभ पर्व आर्यावर्त में होते हैं, जबकि आठ लोकांतरों (देशांतरों) में। इन आठ स्थानों को सिर्फ देवता जानते हैं, मनुष्य आदि दूसरे प्राणी नहीं।
विष्णु पुराण, विष्णुयाग आदि ग्रंथों में गोविंद द्वादशी (पुष्य नक्षत्र से युक्त फाल्गुन शुक्ल द्वादशी), गजछाया योग (अमावस्या के अंत में जब राहु सूर्य को अपना ग्रास बना लेता है), वारुणी योग (शतभिषा नक्षत्र से युक्त चैत्र कृष्ण त्रयोदशी), महावारुणी योग (शनिवार के सहित शतभिषा नक्षत्र से युक्त चैत्र कृष्ण त्रयोदशी), महा-महावारुणी योग (शुभ योग एवं शनिवार के सहित शतभिषा नक्षत्र से युक्त चैत्र कृष्ण त्रयोदशी), विषुभ व्यतिपात जैसे विशेष योगों को कुंभ पर्व कहा गया है। इसी तरह वेदों में भी कुंभ पर्वों की महिमा गाई गई है।
कहते हैं कि देव-दानवों के बीच विवाद के चलते पृथ्वी पर जहां-जहां अमृत कलश रखा गया, वहां-वहां उस समय जैसा ग्रहों का योग था, वैसा ही योग आने पर कुंभ का आयोजन होता है। दैत्य गुरु शुक्राचार्य से प्रेरित और झगड़े के कारण क्रोधित चित वाले दैत्यों से सूर्य ने गुरु, चंद्रमा व अपने पुत्र शनि की मदद से अमृत कलश की रक्षा की। चंद्रमा ने उसे छलकने और सूर्य ने फूटने से बचाया, जबकि गुरु ने उसके दैत्यों के अधिकार में नहीं जाने दिया। इंद्र पुत्र जयंत स्वयं अमृत न पी जाएं, इसके लिए शनि ने उनकी पहरेदारी की। इसलिए यह सभी ग्रह तीन-तीन साल के अंतराल में अलग-अलग स्थानों पर कुंभ पर्व के कारक बनते हैं।
'स्कंद पुराण' के 'हरिद्वार माहात्म्य' नामक खंड में भी कुंभ की उत्पत्ति को लेकर इसी से मिलता-जुलता आख्यान आया है। इसके अनुसार समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत कुंभ पृथ्वी में चार स्थानों पर छलका। इसलिए भारत में कुंभ पर्व के चार भेद हो गए। विष्णुद्वार (हरिद्वार), तीर्थराज (प्रयाग), अवंती (उज्जयिनी) व त्र्यंबक (गोदावरी तट), इन चार स्थानों पर घटने वाले इस योग को भगवान शिव आदि देवता कुंभ योग के नाम से पुकारते हैं। गुरु व मेष में सूर्य होने पर हरिद्वार, वृष में गुरु व मकर में सूर्य होने पर प्रयाग, सिंह में गुरु व मेष में सूर्य होने पर उज्जैन और सिंह में गुरु व सूर्य होने पर त्र्यंबक में कुंभ पर्व होता है।
ज्योतिषाचार्य डॉ. सुशांत राज के अनुसार ऐतिहासिक मत है कि सम्राट हर्षवर्धन 'शिलादित्य' (612-647 ईस्वी) ने कुंभ मेलों का सूत्रपात किया था। कतिपय लोग कुंभ मेलों का वर्तमान रूप में विकास आदि शंकराचार्य द्वारा प्रवर्तित मानते हैं। खैर! कुंभ की उत्पत्ति को जिस भी रूप में स्वीकारा जाए, लेकिन ध्येय एक ही है- पुण्य की प्राप्ति। 'विष्णुयाग' में भी कहा गया है, 'मनुष्यों में वे धन्य हैं, जो गंगाद्वार का दर्शन करते हैं। उनमें भी देवताओं के वंदनीय बृहस्पति जब कुंभ राशि में स्थित हों और उस समय सूर्य एवं चंद्रमा की संक्रांति का दिन हो, विशेष पुण्य मिलता है।
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