Year Ender 2021: वर्ष 2021 में 130 वर्ष बाद महामारी के साये में हुआ कुंभ
Year Ender 2021 हरिद्वार कुंभ के इतिहास को टटोलें तो वर्ष 1844 1855 1866 1879 और 1891 के कुंभ मेले भी महामारी के बीच संपन्न कराए गए थे। वर्ष 1844 में हुए कुंभ के दौरान तो ब्रिटिश सरकार ने बाहरी लोगों के हरिद्वार आगमन पर रोक लगा दी थी।

दिनेश कुकरेती, देहरादून। Year Ender 2021 महामारी के साये में गुजरे साल 2021 को हरिद्वार कुंभ के लिए विशेष रूप से याद किया जाएगा। यह पहला मौका रहा, जब दुनिया के सबसे बड़े धार्मिक अनुष्ठान कहे जाने वाले कुंभ की अवधि अप्रैल में महज 28 दिन सीमित कर दी गई और इसमें भी चैत्र पूर्णिमा (27 अप्रैल) के अंतिम शाही स्नान को प्रतीकात्मक संपन्न कराया गया। जबकि, सनातनी परंपरा के अनुसार हरिद्वार कुंभ हमेशा ही जनवरी में मकर संक्रांति के पर्व स्नान से शुरू हो जाता है। इस कुंभ में हमेशा की तरह पहले छह पर्व और चार शाही स्नान निर्धारित थे, लेकिन कोरोना की दूसरी लहर के दौरान संक्रमण बढ़ने के कारण इसे दो पर्व और तीन शाही स्नान तक सीमित कर दिया गया। बाद में सोमवती अमावस्या (12 अप्रैल) और मेष संक्रांति (14 अप्रैल) पर ही शाही स्नान संपन्न कराए गए। इन दोनों तिथि के बीच पडऩे के कारण नव संवत्सर (13 अप्रैल) का पर्व स्नान ही थोड़ा-बहुत कुंभ के रंग में रंगा नजर आया। कुंभ का पहला शाही स्नान 11 मार्च को शिवरात्रि पर्व पर होना था और सभी 13 अखाड़ों के शाही वैभव के साथ यह संपन्न भी हुआ, लेकिन सरकार ने इसे शाही स्नान नहीं माना। बावजूद इसके कोरोना के साये में कुंभ की दिव्यता एवं भव्यता बनी रही।
130 साल बाद महामारी के बीच संपन्न हुआ कुंभ
हरिद्वार कुंभ के इतिहास को टटोलें तो वर्ष 1844, 1855, 1866, 1879 और 1891 के कुंभ मेले भी महामारी के बीच संपन्न कराए गए थे। वर्ष 1844 में हुए कुंभ के दौरान तो ब्रिटिश सरकार ने बाहरी लोगों के हरिद्वार आगमन पर पूरी तरह रोक लगा दी थी। जबकि, 155 साल पहले वर्ष 1866 के हरिद्वार कुंभ के दौरान पहली बार शारीरिक दूरी का पालन कराया गया था।
83 साल बाद 11 वर्ष के अंतराल में बना कुंभ का योग
वैसे तो हरिद्वार कुंभ को वर्ष 2022 में आयोजित होना था, लेकिन ग्रह-चाल के कारण यह संयोग वर्ष 2021 में ही बन गया। खास यह कि ऐसा संयोग एक सदी के अंतराल में पहली बार बना। जबकि, आमतौर पर कुंभ 12 वर्ष के अंतराल में होता है। काल गणना के अनुसार गुरु का कुंभ और सूर्य का मेष राशि में संक्रमण होने पर ही कुंभ का संयोग यानी अमृत योग बनता है। बीते एक हजार वर्षों में हरिद्वार कुंभ की परंपरा को देखें तो वर्ष 1760, वर्ष 1885 और वर्ष 1938 के कुंभ 11वें वर्ष में हुए थे। इसके ठीक 83 साल बाद वर्ष 2021 में फिर यह मौका आया और अब 2104 में ऐसा संयोग देखने को मिलेगा।
इसलिए 11वें वर्ष में होता है हर आठवां कुंभ
खगोलीय गणना के अनुसार गुरु 11 वर्ष, 11 माह और 27 दिन (4332.5 दिन) में बारह राशियों की परिक्रमा पूरी करता है। इस तरह बारह वर्ष पूरे होने में 50.5 दिन कम रह जाते हैं। धीरे-धीरे सातवें और आठवें कुंभ के बीच यह अंतर बढ़ते-बढ़ते लगभग एक वर्ष का हो जाता है। इसलिए हर आठवां कुंभ 11 वर्ष बाद होता है। 20वीं सदी में हरिद्वार में तीसरा कुंभ वर्ष 1927 में हुआ था और अगला कुंभ वर्ष 1939 में निर्धारित था। लेकिन, गुरु की चाल के कारण यह 11वें वर्ष (वर्ष 1938) में ही आ गया था। इसी तरह 21वीं सदी में भी गुरु की चाल के कारण आठवां कुंभ वर्ष 2022 के स्थान पर वर्ष 2021 में पड़ा।
तय समय से 13 दिन पहले संपन्न हुआ कुंभ
पहले शिवरात्रि पर्व (11 मार्च), सोमवती अमावस्या (12 अप्रैल), मेष संक्रांति (14 अप्रैल) व चैत्र पूर्णिमा (27 अप्रैल) को कुंभ के शाही स्नान और मकर संक्रांति (14 जनवरी), मौनी अमावस्या (11 फरवरी), वसंत पंचमी (16 फरवरी), माघ पूर्णिमा (27 फरवरी), नव संवत्सर (13 अप्रैल) व रामनवमी (21 अप्रैल) को कुंभ के पर्व स्नान संपन्न होने थे। लेकिन, कोरोना ने असमंजस की ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि सरकार को एक से 30 अप्रैल तक कुंभ कराने की घोषणा करनी पड़ी। बाद में इसे 28 अप्रैल कर दिया गया। खास बात यह कि कुछ अखाड़ों ने मेष संक्रांति स्नान के तत्काल बाद कुंभ समाप्ति की घोषणा कर दी, जबकि प्रधानमंत्री की अपील के बाद तय समय से 13 दिन पहले यानी 17 अप्रैल को सभी अखाड़े कुंभ समाप्त करने पर सहमत हो गए। यह भी तय हुआ कि इस अवधि में प्रतीकात्मक तौर पर धार्मिक आयोजन होते रहेंगे।
कुंभ में यह रहा अखाड़ों का स्नान क्रम
इस कुंभ में तय स्नान क्रम के अनुसार शैव संन्यासी संप्रदाय के बाद बैरागी वैष्णव संप्रदाय, फिर उदासीन संप्रदाय और आखिर में निर्मल संप्रदाय के अखाड़ों ने शाही स्नान किया। तीनों शाही स्नान के लिए स्नान का क्रम यही रहा। इससे पूर्व, शिवरात्रि का स्नान भी अखाड़ों ने इसी क्रम में किया, जो निम्न है-
- श्री पंचायती तपोनिधि निरंजनी अखाड़ा और श्री पंचायती तपोनिधि आनंद अखाड़ा
- श्रीपंचदशनाम जूना अखाड़ा, श्री पंचदशनाम पंच अग्नि अखाड़ा, श्री पंचदशनाम आह्वान अखाड़ा और किन्नर अखाड़ा
- श्री पंचायती अखाड़ा महानिर्वाणी और श्री पंच अटल अखाड़ा
- श्रीपंच दिगंबर अणि अखाड़ा, श्रीपंच निर्वाणी अणि अखाड़ा और श्रीपंच निर्मोही अणि अखाड़ा
- श्री पंचायती अखाड़ा बड़ा उदासीन और श्री पंचायती अखाड़ा नया उदासीन
- श्री पंचायती अखाड़ा निर्मल
ऐसे होती है कुंभ की गणना
चर्चा कुंभ की हो रही है तो यह जान लेना भी जरूरी है कि आखिर कुंभ की गणना होती कैसे है। खगोलीय गणना के अनुसार गुरु एक राशि में लगभग एक वर्ष रहता है। बारह राशियों के भ्रमण में उसे 12 वर्ष का समय लगता है। इस तरह प्रत्येक बारह वर्ष बाद कुंभ उसी स्थान पर वापस आ जाता है। जबकि, कुंभ के लिए निर्धारित चार स्थानों में से प्रत्येक में हर तीसरे वर्ष कुंभ का आयोजन होता है। इनमें भी प्रयागराज के कुंभ का विशेष महत्व माना गया है। यहां 144 वर्ष के अंतराल में महाकुंभ आयोजित होता है, क्योंकि देवताओं का 12वां वर्ष मृत्युलोक के 144 वर्ष बाद आता है। बता दें कि शास्त्रों में 12 स्थानों पर कुंभ के आयोजन का उल्लेख है। इनमें से सिर्फ चार स्थान (हरिद्वार, प्रयागराज, नासिक व उज्जैन) ही धरती पर हैं। शेष आठ स्थान अन्य लोकों में मौजूद हैं।
अब 2025 में होगा प्रयागराज कुंभ
कुंभ कहां होगा, यह गुरु व सूर्य की चाल पर निर्भर करता है। जब सूर्य मेष और गुरु कुंभ राशि में प्रवेश करते हैं तो हरिद्वार कुंभ का आयोजन होता है। गुरु के वृषभ और सूर्य के मकर राशि में आने पर प्रयागराज कुंभ आयोजित होता है। यह संयोग हरिद्वार कुंभ के चार वर्ष (कुंभ परंपरा के तीन वर्ष) बाद वर्ष 2025 में बन रहा है। उज्जैन में कुंभ तब होता है, जब गुरु और सूर्य, दोनों वृश्चिकराशि में आ जाते हैं। इसी तरह नासिक कुंभ का आयोजन गुरु और सूर्य के सिंह राशि में प्रवेश करने पर किया जाता है।
कहां किस स्थान पर होता है कुंभ
- हरिद्वार कुंभ : गंगा के किनारे
- प्रयागराज कुंभ : गंगा, यमुना और विलुप्त सरस्वती नदी के संगम पर
- उज्जैन कुंभ : क्षिप्रा नदी के तट पर
- नासिक कुंभ : गोदावरी नदी के तट पर
Edited By Sunil Negi