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अब महकमे के हाथ डिजिटल तकनीक से लैस वर्चुअल क्लास का नुस्खा लगा

उत्‍तराखंड बने हुए 19 साल से ज्यादा गुजर चुके हैं। सरकारी शिक्षा सपनों की आभासी दुनिया में है। इसके फायदे गिनिए और गुनिए।

By Sunil NegiEdited By: Published: Thu, 09 Jan 2020 04:49 PM (IST)Updated: Thu, 09 Jan 2020 04:49 PM (IST)
अब महकमे के हाथ डिजिटल तकनीक से लैस वर्चुअल क्लास का नुस्खा लगा
अब महकमे के हाथ डिजिटल तकनीक से लैस वर्चुअल क्लास का नुस्खा लगा

देहरादून, रविंद्र बड़थ्वाल। राज्य बने हुए 19 साल से ज्यादा गुजर चुके हैं। सरकारी शिक्षा सपनों की आभासी दुनिया में है। इसके फायदे गिनिए और गुनिए। बड़ा विषम भौगोलिक क्षेत्र और उनमें ज्यादातर में शिक्षकों की जबर्दस्त कमी, लेकिन राज्य का छात्र-शिक्षक अनुपात यानी पीटीआर संतोषजनक। तुर्रा ये है कि बड़ी संख्या में स्कूलों में मानक से ज्यादा शिक्षक।

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ये कहना फिजूल है कि ऐसे स्कूल मैदानी या सुगम क्षेत्रों में हैं। तेजी से घट रही है छात्रसंख्या। 500 से ज्यादा प्राइमरी स्कूल बंद। महकमे के हर साल बढ़ रहे भारी-भरकम बजट का फल। निजी स्कूलों की पौ-बारह। कतार में खड़े हैं छात्र-अभिभावक। अब महकमे के हाथ डिजिटल तकनीक से लैस वर्चुअल क्लास का नुस्खा लगा है। गुरुओं को दूरदराज स्कूलों में भेजने को चिल्ल-पौं की तोड़ है ये आभासी दुनिया की डिजिटल तकनीक। सीमांत पर्वतीय जिलों से शिक्षक भेजो की उठती आवाज शांत करने को जिलाधिकारियोंको भी ये नुस्खा थमाया गया है।बड़े महकमे में ईमानदारी

सूबे का सबसे बड़ा महकमा है शिक्षा। मुखिया कड़क हैं। गरीबों के नाम पर रह-रहकर आंसू फूट पड़ते हैं। मजाल किसी की जो महकमे में किसी गरीब का दिल जरा भी दुखा दे, लेकिन ये क्या, नाक के नीचे ही महकमे की ईमानदारी वायरल हुए ऑडियो में खुसपुसा गई। छोटे दफ्तरों से फाइल ऊपर बढ़ाने में जोर लगता ही है। दफ्तर बड़े होंगे तो और जोर लगाना पड़ेगा, साथ में एक दरबारी कोण भी है। बस इतनी सी बात का बतंगड़ बना डाला। आखिर इतनी ईमानदारी सुहाती भी तो नहीं। पहले काम भी करा लिया और फिर ईमानदारों के साथ कर दी धोखाधड़ी। ईमानदारी का टॉलरेंस तो ठीक है, बताइए इस धोखाधड़ी का क्या करें। मुखिया भी दुखी हैं। नजरें टेढ़ी की तो गमगीन माहौल बदलने को फिर चुटकियों में काम करने का राग महकमे में अलापा जाने लगा है। अब महकमे में धीरे-धीरे फिर खुशी लौट रही हैं।

ज्ञान से बुद्धत्व की ओर

ज्ञान जब उथला होता है तो कई तरह के भटकाव भी आते हैं। यही ज्ञान जब परिपक्वता की सियासी सीढिय़ां लांघता आगे बढ़ता है तो बुद्धत्व जागेगा ही। साहब के साथ अब आए-दिन ऐसा हो रहा है। साहब ने पहले फीस कमेटी गठित की तो हाय-तौबा मच गई। आखिर गरीब सूबे के सरकारी डिग्री कॉलेज छात्रों से ज्यादा फीस वसूलना नाइंसाफी है। फीस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट सबसे पहले साहब को ही सौंपी। रिपोर्ट में फीस बढ़ाने का सुझाव है। इसके पीछे तर्क दिए गए हैं। साहब ने शांति से रिपोर्ट देखी, कब्जे में की। बुद्धत्व देखिए, फीस कतई नहीं बढ़ाई जाएगी। सिर्फ फीस की मौजूदा मदों में हेर-फेर होगा। प्रदेश के सरकारी डिग्री कॉलेजों के हजारों छात्र अब सुकून में हैं। पहले आफत बनी सेमेस्टर प्रणाली खत्म, फिर फीस नहीं बढ़ाने का एलान। दूसरा एलान, कम छात्रों वाले डिग्री कॉलेज बंद नहीं होंगे। इसे कहते हैं ईमानदारी से सियासत।

एक्ट यानी टेक्टफुल एक्ट

ये अंब्रेला एक्ट क्या है। सवाल के साथ ही तपाक से जवाब मिला, गुलाबी रंगत वाले रसूखदारों के निजी विश्वविद्यालयों की मनमानी रोकने की टेक्टिस। भारी जनमत के बोझ तले दबी सरकार से जनता के भारी कष्टों का निवारण स्वाभाविक है। कुछ ऐसा ही है अंब्रेला एक्ट। अब निजी विश्वविद्यालयों की खैर नहीं। चाबुक कैसे चले, पिछले दो साल बेहिसाब मंथन जारी है।

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विश्वविद्यालयों से रायशुमारी हुई तो ना-नुकुर तेज। इधर एक्ट का मसौदा तैयार, उधर अंदरखाने धड़ाधड़ बैठकों का दौर। एक बार एक्ट बनाकर निजी संचालकों को थमाने के बाद समझो सरकार की छुट्टी। फीस के नाम पर छात्रों-अभिभावकों का हो-हल्ला, शिकायतें, कुछ नहीं हो सकता, इस नाउम्मीदी पर नया एक्ट नई उम्मीद बताया जा रहा है। अब उम्मीद इस पर टिकी है कि आखिर ये कैबिनेट की पेशेनजर हो। कैबिनेट में कब आएगा, कोई अता पता नहीं। इसे ही कहते हैं एक्ट के बहाने सरकार का टैक्टफुल एक्ट।

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