जंगल की बात : आखिरकार मेहरबान हुई कुदरत, बारिश-बर्फबारी ने आग पर लगाया अंकुश
उत्तराखंड में जंगलों की आग से परेशान वन महकमे को आखिरकार कुदरत से कुछ राहत मिल ही गई। बीते दिनों मौसम के करवट बदलने के साथ हुई हल्की बारिश-बर्फबारी ने आग पर कुछ हद तक अंकुश लगाया है।
केदार दत्त, देहरादून। उत्तराखंड में जंगलों की आग से परेशान वन महकमे को आखिरकार कुदरत से कुछ राहत मिल ही गई। मौसम के करवट बदलने के साथ हुई हल्की बारिश-बर्फबारी ने आग पर कुछ हद तक अंकुश लगाया है। अन्यथा, जिस ढंग से जंगल धधक रहे थे, उसने बेचैनी बढ़ा दी थी। आंकड़ों पर ही गौर करें तो पिछले साल अक्टूबर से जंगल धधक रहे हैं और तब से अब तक आग की 1599 घटनाओं में 2181.12 हेक्टेयर जंगल सुलग चुका है। बीते नौ दिनों के वक्फे में ही 738 घटनाओं में 1055.34 हेक्टेयर जंगल झुलस चुका है। चिंता सताने लगी थी कि यदि मौसम का ऐसा ही रुख रहा तो आने वाले दिनों में क्या होगा। इसे देखते हुए वन विभाग के साथ ही हर किसी की नजरें आसमान की तरफ टिकी हुई थीं। लंबे इंतजार के बाद आखिर, इंद्रदेव को भी देवभूमि में झुलसती वन संपदा पर तरस आ ही गया।
नई रणनीति की जरूरत
वनों की आग के दृष्टिकोण से मौसम ने भले ही थोड़ी राहत दी है, मगर इसे लेकर बहुत अधिक खुशफहमी पालने की जरूरत नहीं है। वजह ये कि गर्मियों में आग के लिहाज से सबसे अधिक संवेदनशील वक्त तो अब शुरू होने वाला है। मध्य अपै्रल से मानसून आने तक राज्य में जंगल सर्वाधिक धधकते हैं। जाहिर है कि अब मौसम थोड़ा मेहरबान हुआ है तो इस वक्त का सदुपयोग आने वाले दिनों के लिए नए सिरे से रणनीति बनाने में किया जाना चाहिए। केंद्र सरकार पहले ही वायुसेना के दो हेलीकाप्टर उपलब्ध कराने के साथ ही एनडीआरएफ की तीन टीमें भेज चुकी है। साथ ही केंद्र ने आग पर नियंत्रण को हरसंभव मदद का भरोसा दिलाया है। ऐसे में गेंद अब राज्य के पाले में है कि वह पारंपरिक ढर्रे से हटकर वनों की आग पर नियंत्रण के लिए प्रभावी कार्ययोजना तैयार कर इसे धरातल पर उतारना सुनिश्चित करे।
आमजन की भी जिम्मेदारी
विषम भूगोल वाले उत्तराखंड में जंगलों को आग से बचाना किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है। हालांकि, आग से निबटने के लिए सरकार तमाम कदम उठा रही है, लेकिन यह काम बगैर जनसहयोग के संभव नहीं है। कहने का आशय यह कि वनों को बचाने में आमजन को भी अपनी जिम्मेदारी समझते हुए इसके लिए पूरी शिद्दत के साथ आगे आना होगा। बात समझने की है कि वन हमारे अस्तित्व से जुड़ा प्रश्न हैं और इन्हें बचाए रखना हम सबका दायित्व है। वनों में आग लगने पर पूरी सावधानी बरतते हुए इसे बुझाने में तो जुटना ही होगा, साथ ही अन्य व्यक्तियों को भी प्रेरित करना होगा। यही नहीं, जंगल से सटे खेतों में खरपतवार जलाते वक्त खास सजगता की दरकार है। ऐसा तरीका ईजाद करना होगा कि कोई भी चिंगारी जंगल की तरफ न जाने पाए। वन क्षेत्रों से गुजरते वक्त भी विशेष सावधानी बरतने की जरूरत है।
देर आये, दुरुस्त आये
बात अटपटी है, मगर है सोलह आने सच। जंगल की आग में एक साल पुराने पौधे के नष्ट होने पर उसकी क्षति आंकी जाती है महज 20 रुपये। इसी तरह दो से पांच साल तक के पौधों के मामले में 22.40 रुपये से 32 रुपये प्रति पौधे के हिसाब से क्षति आंकलित की जाती है। इसके साथ ही चीड़ वनों में आग लगने पर तीन हजार रुपये प्रति हेक्टेयर, साल वनों में दो हजार और मिश्रित वनों में एक हजार रुपये प्रति हेक्टेयर की दर से क्षति की आंकी जा रही है। जाहिर है क्षति आकलन का यह पैमाना हैरत में डालता है। इस मर्तबा वनों में आग की बढ़ती घटनाओं के मद्देनजर इन मानकों को लेकर सवाल उठे तो महकमे को भी इसका अहसास हुआ है। देर से ही सही, मगर उसकी समझ में आया है कि क्षति बेहद कम आकी जा रही। अब इनमें बदलाव की तैयारी है।
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