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कोरोना का नहीं डर, फिर भी सांसत में है बेजुबानों की जान

जंगल में रहने वाले बेजुबानों को कोरोना वायरस से भले ही कोई खतरा न हो लेकिन इन दिनों वे भी सहमे-सहमे से हैं। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि बेजुबानों की जान जो सांसत में है।

By Bhanu Prakash SharmaEdited By: Published: Sat, 28 Mar 2020 11:53 AM (IST)Updated: Sat, 28 Mar 2020 10:03 PM (IST)
कोरोना का नहीं डर, फिर भी सांसत में है बेजुबानों की जान
कोरोना का नहीं डर, फिर भी सांसत में है बेजुबानों की जान

देहरादून, केदार दत्त। जंगल में रहने वाले बेजुबानों को कोरोना वायरस से भले ही कोई खतरा न हो, लेकिन इन दिनों वे भी सहमे-सहमे से हैं। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि बेजुबानों की जान जो सांसत में है। जैवविविधता और वन्यजीव विविधता के लिए मशहूर उत्तराखंड के संरक्षित-आरक्षित क्षेत्रों का हाल कुछ ऐसा ही है। 

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असल में, समूचा तंत्र कोरोना रूपी महामारी से पार पाने में जुटा है। ऐसे में शिकारियों और तस्करों ने मौके का फायदा उठाते हुए जंगल की तरफ रुख कर लिया तो..। वैसे भी यहां के वन्यजीव पहले ही तस्करों-शिकारियों के निशाने पर हैं। सूरतेहाल, बेजुबानों की सुरक्षा को लेकर भी चिंता बढ़ गई है। 

हालांकि, वन महकमे ने इसके दृष्टिगत कार्बेट-राजाजी टाइगर रिजर्व समेत सभी संरक्षित-आरक्षित क्षेत्र के जंगलों में विशेष चौकसी के निर्देश दिए गए हैं, लेकिन माथों से चिंता की लकीरें दूर होने का नाम नहीं ले रहीं। आखिर, सवाल बेजुबानों की जान बचाने का जो है।

बुग्यालों का संरक्षण एवं संवर्द्धन  

उच्च हिमालयी क्षेत्र में ट्री-लाइन और स्नो-लाइन के बीच पाए जाने वाले क्षेत्र को बुग्याल (मिडो) कहा जाता है, यह मखमली हरी घास के मैदान हैं। उत्तराखंड में भी बुग्यालों की ठीक-ठाक संख्या है, जिनमें उत्तम किस्म के चारे के अलावा उच्च औषधीय महत्व की अनेक प्रजातियां पाई जाती हैं। 

बुग्यालों में बड़े पैमाने पर चरान-चुगान की वजह से वहां मिलने वाली तमाम जड़ी-बूटियों को खतरा पैदा हो गया है। लिहाजा, इनका संरक्षण संवर्धन किया जाना जरूरी है। यदि इस तरफ ध्यान नहीं दिया तो जैविक दबाव से न सिर्फ इनमें क्षति होगी, बल्कि तमाम प्रजातियों को विलुप्त होते देर नहीं लगेगी। 

इस कड़ी में बुग्यालों में पाई जाने वाली तमाम दुर्लभ प्रजातियों के प्राकृतिक समूहों को चिह्न्ति कर इनका संरक्षण करना होगा। हालांकि, वन महकमे ने इस दिशा में पहल की है व कुछ बुग्यालों में कार्य हुए हैं, लेकिन विभागीय प्रयासों के सकारात्मक नतीजों का अभी इंतजार है।

वानिकी में मातृशक्ति का योगदान 

उत्तराखंड में हर साल वर्षाकाल में वनों वृहद पैमाने पर पौधरोपण किया जाता है। इसी क्रम में आने वाली बरसात में भी पौधरोपण के मद्देनजर तैयारियां शुरू होने वाली हैं। इस मुहिम में सबसे अहम है पौधों की उपलब्धता। बात समझने की है कि जब विभिन्न प्रजातियों के पौधे उपलब्ध होंगे, तभी तो वन क्षेत्रों में इनका रोपण भी हो सकेगा। पौधों की उपलब्धता सुनिश्चित करने में मातृशक्ति का योगदान कम नहीं है। 

दरअसल, प्रदेश में नर्सरी विकास कार्यक्रम के तहत महिलाओं के माध्यम से पौधालयों का निर्माण कराया जा रहा है। इन महिला पौधालयों में उगाई गई पौध को आवश्यकतानुसार रोपण के लिए वन महकमा ही खरीद रहा है। साफ है कि पौधरोपण अभियान में महिलाएं अपनी सRिय भागीदारी निभा रही हैं। राज्य में शुरू की गई इस पहल से जहां महिलाओं में वानिकी कार्यों के प्रति रुझान बढ़ रहा है, वहीं उनकी आर्थिक स्थिति में भी सुधार हो रहा है।

फिलहाल आग का खतरा नहीं

उत्तराखंड में जंगलों पर इस साल अब तक कुदरत मेहरबान है। नियमित अंतराल में हो रही वर्षा-बर्फबारी के चलते जंगलों में इस मर्तबा फायर सीजन (15 फरवरी से मानसून के आगमन तक की अवधि) में अभी तक आग की एक भी घटना नहीं हुई है। अच्छी बात ये है कि वन क्षेत्रों में ठीक-ठाक नमी बरकरार है और जानकारों के मुताबिक अप्रैल तक जंगल की आग के लिहाज से सुकून बना रह सकता है और मई-जून में प्री-मानसून की बौछारें राहत देंगी। 

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इन सब परिस्थितियों को देखते हुए अनुमान लगाया जा रहा है कि इस वर्ष जंगलों को आग का खतरा नहीं रहेगा और वन संपदा महफूज रहेगी। बता दें कि उत्तराखंड में हर साल फायर सीजन के दौरान बड़े पैमाने पर वन संपदा आग की भेंट चढ़ जाती है। पिछले 10 वषों के आंकड़ों पर गौर करें तो प्रतिवर्ष औसतन दो हजार हेक्टेयर जंगल को आग से नुकसान पहुंचता है।

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