उत्तराखंड में है प्रकृति का खजाना, पारिस्थितिकी-आर्थिकी का संगम बनती सगंध
उत्तराखंड में सगंध खेती पारिस्थितिकी और आर्थिकी का संगम बनती जा रही है। सगंध खेती उत्तराखंड के विकास में बेहद कारगर साबित होगी।
देहरादून, [केदार दत्त]: मौजूदा दौर में बढ़ती जरूरतों को पूरा करने के लिए पारिस्थितिकी और आर्थिकी के मध्य संतुलन बेहद जरूरी है। फिर असल विकास भी वही है, जिसमें प्रकृति के साथ कोई छेड़छाड़ न हो। उत्तराखंड में इस चुनौती से पार पाने का आसान जरिया ढूंढा गया है और इसके अपेक्षित नतीजे भी सामने आए हैं। यह है सगंध (एरोमा) खेती यानी गंधयुक्त औषधीय पौधों की खेती।
सगंध खेती से जहां बंजर हो चुकी 7600 हेक्टेयर कृषि भूमि में हरियाली लौटी है, वहीं 20 हजार किसानों की आर्थिकी भी संवर रही है। अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि राज्य में सगंध खेती का सालाना व्यवसाय 70 करोड़ रुपये पर पहुंच गया है। यही नहीं, जिन क्षेत्रों में यह खेती हो रही है, वहां जलस्रोत रीचार्ज होने के साथ ही वातावरण भी शुद्ध हुआ है। इस तरह इकोलॉजी (पारिस्थितिकी) और इकोनॉमी (आर्थिकी) के लिहाज से यह यूनीक मॉडल धीरे-धीरे अपनी जगह बना रहा है। उत्तराखंड सरकार भी इसे प्रोत्साहन दे रही है।
13 जिलों वाले उत्तराखंड में 10 जिले विशुद्ध रूप से पर्वतीय हैं। पलायन के चलते जहां पहाड़ के गांव खाली हुए हैं, वहीं मैदानी क्षेत्रों में आबादी का दबाव बढ़ा है। इसका सीधा असर खेती पर पड़ा। पहाड़ में कृषि योग्य भूमि लगातार बंजर होती चली गई, जबकि मैदानी क्षेत्रों में शहरीकरण की मार कृषि भूमि पर पड़ी है। जिन खेतों में कभी फसलें लहलहाया करती थीं, वहां गाजरघास और खरपतवार ने डेरा डाल लिया। यही नहीं, बारिश का पानी भी खेतों में रुकने की बजाए सीधे निकल जाता है। नतीजा, सीपेज न होने से सूखते जलस्रोतों के रूप में सामने आया। इस सबको देखते हुए मंथन हुआ कि ऐसे उपाय किए जाएं, जिससे खेती भी हो और आर्थिकी भी संवरे।
इसके लिए सगंध खेती अपनाने पर जोर दिया गया और 2002-03 में देहरादून के सेलाकुई में अस्तित्व में आया सगंध पौधा केंद्र (कैप)। धीरे-धीरे कोशिशें हुईं और आज कैप की पहल पर किसान सगंध फसलों की खेती की ओर उन्मुख हुए। वर्तमान में राज्य में 109 एरोमा क्लस्टरों में 7600 हेक्टेयर क्षेत्र में 20 हजार किसान लैमन ग्रास, मिंट, सिट्रोनेला, पामारोजा, तुलसी, मिंट, कैमोमाइल, गंदा, जेरेनियम, तेजपात, स्याहजीरा, डेमस्क गुलाब, आर्टीमीशिया समेत अन्य सगंध फसलों की खेती कर रहे हैं। इसका टर्नओवर लगभग 70 करोड़ रुपये पर पहुंच चुका है।
असल में सगंध खेती पारिस्थितिकी व आर्थिक का अनूठा संगम है। सगंध फसलों के लिए जहां बेहद कम पानी की जरूरत होती है, वहीं इन्हें तरल यानी ऑयल में तब्दील कर बिक्री के लिए ले जाने को ढुलान की दिक्कत नहीं आती। डेमस्क गुलाब का तेल पांच लाख रुपये प्रति किलो बिकता है। सगंध उत्पादों के लिए बाकायदा समर्थन मूल्य तय हैं। यदि खुले बाजार में इसकी बिक्री नहीं हुई तो कैप द्वारा इसे किसानों से खरीदने की व्यवस्था है।
पर्यावरणीय लिहाज से देखें तो सगंध फसलों की खेती भूक्षरण रोकने में कारगर तो है ही, इनसे भूमि में जल संचरण और जलधारण करने की शक्ति बढ़ जाती है। यही नहीं, कार्बन अधिग्रहण में ये अहम भूमिका निभा रही हैं।
पारिस्थितिकी और आर्थिकी का संगम बनती सगंध खेती
संतुलित विकास के लिए पारिस्थितिकी और आर्थिकी के मध्य संतुलन बेहद जरूरी है। उत्तराखंड में सगंध (एरोमा) खेती इसका बेहतर उदाहरण है। इससे जहां बंजर हो चुकी 7600 हेक्टेयर कृषि भूमि में हरियाली लौटी है, वहीं 20 हजार किसानों की आर्थिकी भी संवर रही है।
सगंध पौधा केंद्र के निदेशक नृपेंद्र चौहान ने बताया कि सगंध खेती आर्थिक लाभ के साथ ही पारिस्थितिकी के लिहाज से बेहद लाभकारी है। किसान इस बात को समझने लगे हैं। सगंध फसलें जहां संबंधित क्षेत्र के वातावरण को अपनी महक से शुद्ध करती हैं, वहीं जलस्रोतों को रीचार्ज करने में भी मददगार साबित हो रही हैं। इस मॉडल को धीरे-धीरे प्रदेशभर में फैलाया जा रहा है।
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