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किस काम की ऐसी व्यवस्था, जो समय पर किसी जरूरतमंद की मदद न कर पाए

मरीज कंधे पर हो या ठेली पर। अस्पताल और शहर कोई-सा भी हो। ऐसी तस्वीरें हमेशा दर्द देती हैं। साथ ही सवाल भी खड़े करती हैं। सिस्टम पर। उसके अस्तित्व पर भी। ताजा तस्वीर दून अस्पताल की है। जिसके पास प्रदेश का सबसे बड़ा सरकारी अस्पताल होने का तमगा है।

By Sunil NegiEdited By: Published: Wed, 02 Dec 2020 06:30 AM (IST)Updated: Wed, 02 Dec 2020 06:30 AM (IST)
किस काम की ऐसी व्यवस्था, जो समय पर किसी जरूरतमंद की मदद न कर पाए
बीती 24 नवंबर को दून मेडिकल कॉलेज चिकित्सालय में एक मरीज को कंधे पर उठाकर ले जाते एक तीमारदार।

विजय मिश्रा, देहरादून। मरीज कंधे पर हो या ठेली पर। अस्पताल और शहर कोई-सा भी हो। ऐसी तस्वीरें हमेशा दर्द देती हैं। साथ ही सवाल भी खड़े करती हैं। सिस्टम पर। उसकी संवेदना पर। उसके अस्तित्व पर भी। ताजा तस्वीर दून अस्पताल की है। जिसके पास प्रदेश का सबसे बड़ा सरकारी अस्पताल होने का तमगा है। अत्याधुनिक मशीनें हैं। कुशल स्टाफ की फौज है। विशेषज्ञ चिकित्सकों का अमला भी। फिर भी गाहे-बगाहे यहां ऐसे मामले सामने आते ही रहते हैं। किरकिरी होती है तो सवालों से बचने के लिए जांच बैठा दी जाती है। इधर सवालों के सुर ठंडे पड़ते हैं और उधर जांच की आंच। कोरोनाकाल ने आम आदमी को भले दर्द दिया हो। मगर, इस महामारी ने अधिकांश अस्पतालों की व्यवस्था को सुदृढ़ कर दिया। दून अस्पताल भी इनमें से एक है। सवाल यह है कि ऐसी व्यवस्था किस काम की, जो समय पर किसी जरूरतमंद की मदद न कर पाए।

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एक आदेश और चेहरा बेनूर

कई बार पदोन्नति के लिए कर्मचारियों को आंदोलनकारी तक बनना पड़ता है। मगर, प्रदेश के 40 हजार कर्मचारियों की कहानी कुछ अलग है। इन्हें पदोन्नति का लाभ मिला, वो भी दोहरा। वर्षों तक आय अनुमान से अधिक मिली तो खर्च भी उसी अनुसार किए। बैंक अकाउंट खूब फूले-फले। तब चेहरे खिले रहे। अब नाजायज लाभ को वापस करने का वक्त आया है तो चेहरे से नूर गायब है। शासन को अपनी खामी का अहसास हुआ है। साहब ने ज्यादा भुगतान की गई धनराशि वसूलने का आदेश दे दिया है। मगर, क्या इसमें गलती सिर्फ 40 हजार कर्मचारियों की है। उन अधिकारियों का क्या, जिनके कार्यकाल में यह लाभ दिया गया। क्या उन्हें नियम-कायदों का भान नहीं था। खैर, अब कर्मचारियों का संगठन आगे आ गया है। वसूली होगी या नहीं, यह तो भविष्य के गर्भ में है। इतना जरूर है कि राजकोष को अच्छी-खासी चपत लग चुकी है।

आस्था, जान से बढ़कर नहीं

आस्था। शब्द छोटा है, मगर भाव अनंत। प्रभाव चमत्कारी और सामथ्र्य इतना कि सामान्य मनुष्य को भी देवतुल्य बना दे। लेकिन, क्या आस्था यह भी कहती है कि क्षणिक आत्म संतोष के लिए पूरे समाज को, देश को, भविष्य को खतरे में डालना उचित है। बीते सोमवार को हरिद्वार स्थित हरकी पैड़ी में गंगा स्नान के लिए उमड़े श्रद्धा के हुजूम ने अपनी आस्था का तो निर्वहन किया, मगर इसके लिए उस खतरे को बिसरा दिया जो भविष्य में बड़ा संकट खड़ा कर सकता है। बात हो रही है कोरोना संक्रमण की। प्रदेश में कोरोना के मामले कम जरूर हुए है, मगर खतरा अभी टला नहीं है। राष्ट्रीय औसत से भी ज्यादा मरीजों की मौत होना इसका प्रमाण है। स्थिति तब और गंभीर हो जाती है, जब इस बात की प्रबल संभावना हो कि कोरोना जैसा वायरस नदी के बहते पानी में भी जिंदा रह सकता है। जान है तो जहान है और आस्था भी।

यह उपवास, है कुछ खास

हरदा यानी हरीश रावत। कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री। जितना अपने सियासी दांवपेचों के लिए जाने जाते हैं। उतनी ही शिद्दत से मेहमानों की आवभगत भी करते हैं। लजीज व्यंजन खिलाने और खाने का शौक उनका पुराना है। इससे सामने वाले के दिल तक पहुंचने का रास्ता तो मिलता ही है। सुर्खियां बनती हैं, सो अलग। राजनीति में प्रतिद्वंद्वियों को पछाड़ने के लिए यही दो शस्त्र सबसे अहम हैं। हरीश रावत, लंबे समय से इनका इस्तेमाल करते आ रहे हैं। कई बार कामयाबी भी मिली है। लेकिन, पिछले कुछ समय से हरदा ने रणनीति बदली है। अब व्यंजनों के उत्सव से ज्यादा जोर उपवास पर है। कहा भी गया है, लंघनम परम औषधं। यानी स्वस्थ रहने के लिए उपवास से बढ़कर कोई औषधि नहीं। खैर, हरदा का प्रयोजन सिद्ध हो रहा है। दूसरी तरफ, भाजपाइयों को भी चुटकी लेने का मौका मिल रहा है।

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