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उत्तराखंड में चिंता का सबब बन सकती है जंगलों की घटती जलधारण क्षमता

उत्तराखंड के जंगलों की जलधारण क्षमता लगातार घटती जा रही है। जो आने वाले समय में किसी बड़ी परेशानी का सबब बन सकता है।

By Raksha PanthariEdited By: Published: Wed, 21 Mar 2018 04:05 PM (IST)Updated: Wed, 21 Mar 2018 09:56 PM (IST)
उत्तराखंड में चिंता का सबब बन सकती है जंगलों की घटती जलधारण क्षमता
उत्तराखंड में चिंता का सबब बन सकती है जंगलों की घटती जलधारण क्षमता

रानीखेत, [दीप सिंह बोरा]: बेहिसाब जलभंडार वाले हिमालय के जंगलों की जलधारण क्षमता तेजी से घट रही है। हालिया शोध से प्राप्त जानकारी चिंता का सबब है। दो दशक पहले तक उत्तराखंड में मिश्रित जंगल जिसमें बहुपयोगी बांज के पेड़ों का आधिक्य था, वहां 40 से 50 फीसद वर्षा जल भूमि के गर्भ में समा जाता था, लेकिन अब ऐसा नहीं हो रहा है। इन जंगलों की जलधारण क्षमता में अप्रत्याशित रूप से गिरावट दर्ज की गई है। 

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 हाल ही में हुए एक शोध में पता चला है कि मिश्रित जंगलों की जलधारण क्षमता 50 से घटकर 23 फीसद तक आ सिमटी है। पर्यावरण के जानकार व वनस्पति विज्ञानी इसकी बड़ी वजह वन संपदा का अंधाधुंध दोहन व प्रतिवर्ष बढ़ती वनाग्नि की घटनाओं को मान रहे हैं। शोध रिपोर्ट बताती है कि चीड़ बहुल वन क्षेत्रों में भी जलधारण क्षमता घट कर अब महज आठ फीसद व बंजर भूमि पर पांच फीसद रह गई है। 

100 मिमि वर्षा पर 12 मिमि संचयन 

नेचुरल रिसोर्स डाटा मैनेजमेंट सिस्टम (एनआरडीएमएस), कुमाऊं के निदेशक प्रो. जीवन सिंह रावत के निर्देशन में किए गए शोध के अनुसार वर्तमान में 100 मिमी वर्षा होने पर हिमालयी क्षेत्र की भूमि के गर्भ में औसत 12 मिमी पानी ही पहुंच पा रहा है। जबकि दो दशक पहले तक उत्तराखंड के स्वस्थ जंगलों के बूते वर्ष भर की पेयजल व सिंचाई की जरूरत का जल भंडार भूगर्भ में सुरक्षित रहता था। 

इसलिए घटी जलधारण क्षमता

दो दशक पहले तक उत्तराखंड के बड़े भू-भाग में चौड़ी पत्ती वाले वृक्षों से आच्छादित वन क्षेत्र थे। वृक्षों के नीचे छोटी झाडिय़ां व लताएं भी प्रचुर मात्रा में होती थीं और जमीन घास से पटी रहती थी। जंगल के वृक्ष जलधारण-जलभंडारण की प्रक्रिया को गति देते थे। इनसे गिरने वाली पत्तियां जमीन पर परत दर परत जमकर एक तरह के कारपेट का काम करती थीं। जिसमें सबसे नीचे पूर्णरूप से सड़ चुकी पत्तियों की परत, उसके ऊपर आंशिक रूप से सड़ी हुई पत्तियों की व सबसे ऊपर सूखी व वृक्ष से टूटकर गिरी पत्तियों की परत। 

ये परतें वर्षा जल को थामने का काम करती थीं। वर्षा जल इन्हीं तीन परतों से रिस कर भूमिगत जल भंडार तक पहुंचता है। यह पूरी प्रकिया प्राकृतिक विज्ञान है, जो भूकटाव को भी रोकती थी। मगर अब ऐसा नहीं हो पा रहा है। वन संपदा के अंधाधुंध दोहन व वनाग्नि से वनों का भारी क्षति पहुंची है। झाडिय़ां लगभग गायब हो चुकी हैं। चौड़ी पत्ती के वृक्षों से वनाच्छादित क्षेत्र बढऩे के बजाय 65 फीसद से घट कर 45 प्रतिशत पर पहुंच गया है। 

गैरहिमानी नदियों के सूखने की वजह भी यही 

भूगर्भीय जल भंडार ही गैरहिमानी नदियों को जिंदा रखते हैं। अकेले कुमाऊं में जीवनदायिनी कोसी, सरयू, गगास, गरुड़ गंगा आदि नदियों के 90 प्रतिशत उद्गम स्थल, रीचार्ज जोन व जलस्रोत वन क्षेत्रों में हैं। वनाग्नि, जलवायु परिवर्तन, अवैज्ञानिक दोहन और अनियोजित विकास से सिमटते जंगलों की जैवविविधता तेजी से घट रही। 

वन क्षेत्रों में पहले जैसी नमी भी नहीं रही। वन क्षेत्रों में मौजूद नदियों के रीचार्ज जोन के आसपास भूगर्भीय जलभंडारों तक वर्षाजल पहुंच नहीं पा रहा है। नतीजतन, जीवनदायिनी कोसी व अन्य तमाम गैरहिमानी नदियां मौसमी नदियों में तब्दील हो गई हैं। कोसी का जलप्रवाह वर्तमान में अपने न्यून स्तर 45 लीटर प्रति सेकंड पर जा पहुंचा है। कुमाऊं की 93 अहम सरिताएं व लगभग 1400 जलस्रोत दम तोड़ चुके हैं।

 

वहीं एनआरडीएमएस कुमाऊं निदेशक और शोध वैज्ञानिक प्रो. जीवन रावत ने बताया कि अनियोजित विकास, वनों के अंधाधुंध दोहन और वनाग्नि पर नियंत्रण के लिए प्रभावी कदम उठाने होंगे। वरना पर्वतीय क्षेत्रों की गैर हिमानी नदियां विलुप्त हो जाएंगी। 

चिंता बढ़ा रही जंगलों की घटती जलधारण क्षमता

बेहिसाब जलभंडार वाले हिमालय के जंगलों की जलधारण क्षमता तेजी से घट रही है। हालिया शोध से प्राप्त जानकारी चिंता का सबब है। दो दशक पहले तक उत्तराखंड में मिश्रित जंगल जिसमें बहुपयोगी बांज के पेड़ों का आधिक्य था, वहां 40 से 50 फीसद वर्षा जल भूमि के गर्भ में समा जाता था, लेकिन अब ऐसा नहीं हो रहा है। इन जंगलों की जलधारण क्षमता में अप्रत्याशित रूप से गिरावट दर्ज की गई है। यह क्षमता 50 से घटकर 23 फीसद तक आ सिमटी है। 

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