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जंगल की बात : उत्‍तराखंड के पांच जिलों में वनावरण में हुई कमी, जिससे चिंता और चुनौती बढ़ी

उत्‍तराखंड में वनावरण को लेकर एफएसआइ ने ताजा रिपोर्ट जारी की है। यह रिपोर्ट बताती है कि राज्‍य के पांच जिलों में पिछले दो साल में वनावरण में कमी दर्ज की गई है। इसका मुख्‍य कारण विकास कार्यों के लिए हस्तांतरित की गई भूमि से पेड़ों का कटना है।

By Sunil NegiEdited By: Published: Fri, 21 Jan 2022 05:19 PM (IST)Updated: Fri, 21 Jan 2022 05:19 PM (IST)
जंगल की बात : उत्‍तराखंड के पांच जिलों में वनावरण में हुई कमी, जिससे चिंता और चुनौती बढ़ी
अच्छी आबोहवा के लिए आवश्यक है कि आसपास पेड़-पौधे और हरियाली हो।

केदार दत्त, देहरादून। अच्छी आबोहवा के लिए आवश्यक है कि आसपास पेड़-पौधे और हरियाली हो। इसमें जंगल सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इस दृष्टिकोण से देखें तो उत्तराखंड के पांच जिलों की तस्वीर ने थोड़ी चिंता बढ़ा दी है। राज्य में वनावरण (फारेस्ट कवर) को लेकर एफएसआइ की ताजा रिपोर्ट बताती है कि यहां के पांच जिलों हरिद्वार, ऊधमसिंहनगर, चम्पावत, बागेश्वर व टिहरी में पिछले दो साल में वनावरण में कमी दर्ज की गई है। इसका कारण विकास कार्यों के लिए हस्तांतरित की गई भूमि से पेड़ों का कटना बताया जा रहा है। यह कहीं न कहीं विकास और जंगल के मध्य सामंजस्य के अभाव को भी दर्शाता है। इससे चिंता के बादल घुमड़ना स्वाभाविक ही है। ऐसे में अब चुनौती इन जिलों में वनावरण बढ़ाने के साथ ही उसे बरकरार रखने की भी है। यानी, ऐसे कदम उठाने की आवश्यकता है, जिससे जंगल सुरक्षित रहें और विकास का पहिया भी घूमता रहे।

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गैंडे आए न सोन

ज्यादा समय नहीं बीता, जब वन विभाग ने कार्बेट और राजाजी टाइगर रिजर्व के जंगलों में वन्यजीवों की दो प्रजातियों को फिर से बसाने को कसरत शुरू की थी। इसके अंतर्गत कार्बेट टाइगर रिजर्व में असोम से गैंडे लाए जाने थे तो कर्नाटक से राजाजी टाइगर रिजर्व में वाइल्ड डाग (सोन) को। असल में, पुराने अभिलेख बताते हैं कि एक समय में कार्बेट में गैंडों का संसार बसता था, जो बाद में विलुप्त हो गया। इसी तरह राजाजी में भी सोन का बसेरा था। इन दोनों वन्यजीवों को फिर से यहां बसाने के मद्देनजर अध्ययन हुआ। प्रस्ताव को राज्य वन्यजीव बोर्ड से भी हरी झंडी मिली और फिर राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड, राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण व केंद्रीय चिडिय़ाघर प्राधिकरण से पत्राचार भी हुआ। बावजूद इसके दो साल का समय बीतने को है, लेकिन न गैंडे आए और न सोन। अब इस विषय पर विभाग ने चुप्पी ही साध ली है।

कुर्री की बढ़ती फांस

अनुपयोगी वनस्पतियों से उत्तराखंड के जंगल भी अछूते नहीं हैं। तमाम तरह की घुसपैठिया प्रजातियों ने यहां के जंगलों में डेरा डाला है, लेकिन सर्वाधिक नींद उड़ाई है लैंटाना कमारा ने। स्थानीय बोली में इसे कुर्री कहा जाता है। यह ऐसी झाड़ीदार प्रजाति है जो अपने आसपास किसी दूसरी वनस्पति को नहीं पनपने देती। साथ ही वर्षभर खिलने के कारण इसका प्रसार भी बढ़ता रहता है। इसी के चलते कुर्री को यहां की पारिस्थितिकी के लिए नुकसानदेह माना जाता है। यद्यपि, इस पर नियंत्रण को प्रयास हो रहे हैं, लेकिन ये कारगर साबित नहीं हो पा रहे। स्थिति ये है कि राज्य का शायद ही कोई जंगल होगा, जहां कुर्री ने दस्तक न दी हो। सभी जगह इसके बड़े-बड़े प्रक्षेत्र दिखाई पड़ते हैं। ऐसे में कुर्री पर नियंत्रण की चुनौती अधिक बढ़ गई है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इससे पार पाने के लिए अधिक गंभीरता से कदम उठाए जाएंगे।

लगेगी वादों की झड़ी

राज्य में विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया शुरू होने के साथ ही अब आने वाले दिनों में जंगल से गुजरने वाली सड़क फिर से चर्चा के केंद्र में रहेगी। राजनीतिज्ञ इसे अपनी प्राथमिकता बताएंगे और निर्माण का वादा भी करेंगे। हम बात कर रहे हैं गढ़वाल-कुमाऊं को राज्य के भीतर सीधे आपस में जोडऩे वाली कंडी रोड (रामनगर-कालागढ़-कोटद्वार-लालढांग) की। इसका एक हिस्सा कार्बेट टाइगर रिजर्व तो दूसरा राजाजी टाइगर रिजर्व से लगे लैंसडौन प्रभाग से गुजरता है। एक दौर में यह मार्ग दोनों मंडलों में आवाजाही का मुख्य माध्यम था। कालांतर में वन कानूनों के अस्तित्व में आने के बाद इस मार्ग पर ऐसा पर्यावरणीय पेच फंसा, जो आज तक नहीं खुल पाया है। यद्यपि, इससे पार पाने के प्रयास अवश्य हुए, लेकिन सफलता नहीं मिल पाई। अब जबकि, चुनावी मौसम चल रहा है तो हर बार की तरह राजनीतिज्ञ इसे लेकर वादों की झड़ी जरूर लगाएंगे।

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