उत्तराखंड में ख्वाब ही रह गई विदेशों में प्रचलित क्लाउड सीडिंग तकनीक, जानिए वजह
दो साल पहले की ही बात है। तब विभाग के तत्कालीन मुखिया ने जोर-शोर से दावा किया था कि जंगलों को आग से बचाने को सूबे में क्लाउड सीडिंग तकनीक अपनाई जाएगी। यानी जब भी जंगलों में आग लगेगी कृत्रिम बारिश कराकर इस पर तुरंत काबू पा लिया जाएगा।
केदार दत्त, देहरादून। 'न नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेगी'। विषम भूगोल और 71.05 फीसद वन भूभाग वाले उत्तराखंड में जंगलों के संरक्षण की जिम्मेदारी संभाले वन महकमे पर यह कहावत एकदम सटीक बैठती है। ज्यादा वक्त नहीं गुजरा, दो साल पहले की ही बात है। तब विभाग के तत्कालीन मुखिया ने जोर-शोर से दावा किया था कि जंगलों को आग से बचाने को सूबे में क्लाउड सीडिंग (कृत्रिम बारिश) तकनीक अपनाई जाएगी। यानी, जब भी जंगलों में आग लगेगी, कृत्रिम बारिश कराकर इस पर तुरंत काबू पा लिया जाएगा। विदेशों में तो यह तकनीकी खूब प्रचलन में है। शासन को भी इस सिलसिले में प्रस्ताव तैयार कर भेजा गया। एक-दो दौर की बैठकें भी हुईं। कृत्रिम बारिश के मद्देनजर अध्ययन को एक दल दुबई भेजने की बात भी हुई, लेकिन बाद में मामला ठंडे बस्ते की भेंट चढ़ गया। परिणामस्वरूप कृत्रिम बारिश का ख्वाब सिर्फ ख्वाब बनकर ही रह गया।
बर्ड टूरिज्म को लेकर जगी उम्मीद
उत्तराखंड को कुदरत ने मुक्त हाथों से नेमतें बख्शी है। यहां की खूबसूरत वादियां, वन, वन्यजीव एवं जैव विविधता हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करती है। परिंदों को तो उत्तराखंड की वादियां खूब भाती हैं। आंकड़े इसकी तस्दीक करते हैं। देशभर में पाई जाने वाली पक्षी प्रजातियों में से आधे से अधिक यहां मिलती हैं। बावजूद इसके बर्ड वाचिंग (पक्षी अवलोकन) को पर्यटन के लिहाज से खास तवज्जो नहीं मिल पाई है, जबकि यहां इसकी अपार संभावनाएं हैं। यूरोप समेत तमाम देशों में तो बर्ड टूरिज्म बड़े उद्योग के तौर पर उभरा है। खैर, लंबे इंतजार के बाद अब वन महकमे ने इस दिशा में कदम उठाने की ठानी है। बर्ड वाचिंग को स्थानीय समुदाय के लिए रोजगार के अवसर के तौर पर आगे बढ़ाने का निश्चय किया गया है। इसी कड़ी में वन पंचायतों के अधीन पंचायती वनों में भी बर्ड टूरिज्म की पहल होने जा रही है।
वन-जन के बीच मजबूत होंगे रिश्ते
उत्तराखंड में वन और जन के रिश्तों में आई खटास अक्सर चर्चा में रहती है तो इसकी बड़ी वजह भी वन कानून ही हैं। थोड़ा पीछे मुड़कर देखें तो एक दौर में यहां के निवासी जंगलों का संरक्षण करने के साथ ही इनसे अपनी जरूरतें भी पूरी किया करते थे। यह रिश्ता इतना सशक्त था कि चिपको जैसे आंदोलन की नींव भी उत्तराखंड की धरती पर पड़ी। खैर, वक्त ने करवट बदली और वन अधिनियम 1980 के लागू होने के बाद वनों से इमारती और जलौनी लकड़ी के रूप में मिलने वाले हक-हकूक में कटौती शुरू हो गई। जो हक-हकूक अनुमन्य भी है, उसे हासिल करने को वन विभाग की चौखट पर ग्रामीणों को ऐडिय़ां रगडऩी पड़ती है। ऐसे में वन एवं जन के रिश्तों में भी दूरी बढ़ना स्वाभाविक है। अब वन महकमे ने यह खाई पाटने के मद्देनजर हक-हकूक की प्रक्रिया के सरलीकरण की कवायद शुरू की है।
वनकर्मियों को खूब छका रहा सुल्तान
कार्बेट की सरजमीं से राजाजी टाइगर रिजर्व में आए 'सुल्तान' को नए आशियाने में एक पखवाड़ा ही हुआ है, लेकिन वह वनकर्मियों को खूब छका रहा है। सुल्तान उस बाघ का नाम है, जिसे बीती नौ जनवरी को कार्बेट टाइगर रिजर्व से राजाजी टाइगर रिजर्व के मोतीचूर-धौलखंड क्षेत्र में शिफ्ट किया गया। वह पहले दिन से ही वनकर्मियों की पेशानी में बल डाले हुए है। नौ जनवरी को उसे यहां लाकर बाड़े में रखा गया तो वह कब गले पड़े रेडियो कॉलर को निकालकर जंगल में चला गया, पता ही नहीं चला। हड़कंप मचा। ढूंढ-खोज हुई तो अगले दिन बाड़े से दो किमी दूर एक कैमरा टै्रप में उसकी तस्वीर मिलने से कुछ राहत मिली। तब से उसकी लोकेशन तलाशना चुनौती बना है। हालांकि, राजाजी के पालतू हाथियों की मदद से उसे ट्रैस करने के प्रयास जारी हैं, मगर सफलता नहीं मिल पाई है। ऐसे में चिंता बढ़ना स्वाभाविक है।
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