उत्तराखंड में घटा कृषि क्षेत्र, छोटे किसानों तक फसल बीमा का लाभ पहुंचाना चुनौती
विषम भूगोल वाले उत्तराखंड में विकट परिस्थितियों से जूझ रहे अन्नदाता को संबल देने के लिए फसल बीमा योजना की मुहिम बेहतर पहल है मगर इसमें तेजी लाने की दरकार है।
देहरादून, राज्य ब्यूरो। विषम भूगोल वाले उत्तराखंड में विकट परिस्थितियों से जूझ रहे अन्नदाता को संबल देने के लिए फसल बीमा योजना की मुहिम बेहतर पहल है, मगर इसमें तेजी लाने की दरकार है। पिछले 17 साल के फसल बीमा के आंकड़े तो कुछ इसी तरफ इशारा कर रहे हैं।
वर्ष 2002-03 से 2018-19 तक 1121001 किसानों का फसल बीमा जरूर हुआ, मगर लाभ केवल 201327 को ही मिल पाया। इस लिहाज से देखें तो प्रतिवर्ष लाभार्थियों की संख्या औसतन 11842 ही बैठ रही है। असल में राज्य में किसानों की संख्या 8.85 लाख है, जिनमें से करीब 92 फीसद लघु एवं सीमांत हैं।
ऐसे में लघु एवं सीमांत किसानों तक ही इस योजना का लाभ पहुंचाने की सबसे बड़ी चुनौती है, क्योंकि वे ही कृषि के लिहाज से मौसम की बेरुखी, प्राकृतिक आपदा, वन्यजीवों से क्षति समेत अन्य कारणों से जूझ रहे हैं। जाहिर है कि फसल बीमा योजना को सुदूरवर्ती गांवों तक पहुंचाने के लिए इसके तहसील मॉडल को न्याय पंचायत स्तर पर ले जाना होगा।
उत्तराखंड की तस्वीर देखें तो यहां की कृषि व्यवस्था मैदानी, पर्वतीय व घाटी वाले क्षेत्रों में विभक्त है। वर्तमान में 6.90 लाख हेक्टेयर में खेती हो रही है, जो कि कुल भौगोलिक क्षेत्रफल (53483 वर्ग किमी) का 12.90 फीसद है। 70 फीसद आबादी की निर्भरता कृषि पर है।
यह भी चौंकाने वाला आकड़ा है कि राज्य गठन के वक्त कृषि क्षेत्र 7.70 लाख हेक्टेयर था, जिसमें 80 हजार हेक्टेयर की कमी आई है। परती भूमि का दायरा भी 1.07 लाख हेक्टेयर से बढ़कर 1.50 लाख हेक्टेयर पर पहुंच गया है।
साफ है कि कृषि की राह में चुनौतियों की भरमार है। यहां जोत बिखरी और छोटी हैं तो मौसम की बेरुखी भी कम नहीं है। सिंचाई साधनों का अभाव पेशानी पर बल डाले हुए है। प्रदेश में 3.29 लाख हेक्टेयर क्षेत्र ही सिंचित है। इसमें 2.86 लाख हेक्टेयर मैदानी और 0.43 लाख हेक्टेयर पर्वतीय क्षेत्र शामिल है।
स्थिति ये है कि प्रदेश के कुल 95 विकासखंडों में 71 में खेती पूरी तरह इंद्रदेव की कृपा पर निर्भर है। यानी वक्त पर बारिश हो गई तो ठीक, अन्यथा बिन पानी सब सून। कभी सूखा, कभी अतिवृष्टि जैसी आपदाओं ने दिक्कतें खड़ी की हुई हैं, वहीं पलायन, वन्यजीवों द्वारा फसलों को नुकसान के कारण भी कृषि की राह में मुश्किलें पैदा की हैं।
इस सबके मद्देनजर किसानों को राहत देने के मकसद से वर्ष 2002-03 से शुरू की गई फसल बीमा योजना एक बड़ी उम्मीद बनकर सामने आई। तब से 2018-19 तक 17 सालों में 11.21 लाख किसानों का बीमा हुआ, जिनमें से 201327 का बीमा का लाभ मिला। असल में अभी तक बीमा योजना का लाभ दिलाने के लिए तहसील स्तर तक का ही मॉडल कार्यरत है।
यानी तहसील मुख्यालयों के इर्द-गिर्द के किसानों को ही योजना का लाभ मिल पाता है। फिर प्रचार-प्रचार का भी अभाव रहा, जिस कारण यह अधिक से अधिक किसानों तक नहीं पहुंच पाया है।
हालांकि, 2016 में योजना में कुछ संशोधन के साथ इसे नाम दिया गया प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना। इसके तहत धान, गेहूं, मंडुवा, बाजार, तिलहन व अन्य फसलें, वार्षिक नकदी व वार्षिक बागवानी फसलें संसूचित की गई। खरीफ में दो फीसद से अधिक प्रीमियम और रबी में 1.5 फीसद से अधिक प्रीमियम की राशि का भुगतान सब्सिडी के रूप में केंद्र व राज्य सरकार द्वारा 50:50 के अनुपात में बीमा कंपनी को किया जाता है।
दावों का भुगतान भी किसानों को किया जा रहा है, मगर जिस हिसाब से उत्तराखंड में दिक्कतें हैं, उनके समाधान के मद्देनजर इसमें तेजी लाने की दरकार है। हालांकि, फसल बीमा का लाभ अधिक से अधिक किसानों तक पहुंचे, इसके लिए बीमा इकाई को न्याय पंचायत स्तर पर ले जाने का निर्णय हो चुका है, मगर यह अभी परवान नहीं चढ़ पाया है।
पीएम फसल बीमा की जटिल प्रक्रिया से किसान नाखुश
किसानों को आर्थिक सुरक्षा देने के उद्देश्य चलाई गई प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना देहरादून जिले में किसानों को जोड़ने का प्रयास तो कर रही है, लेकिन योजना की बेहद जटिल प्रक्रिया रुकावट बन रही है। बीमा कंपनी के सर्वे में लंबा समय लग रहा है, इंतजार में किसान की आस भी धूमिल होने लगी है।
देहरादून जिले में वर्ष 2018-19 में खरीफ की फसल (धान व मंडुआ) में 2392 किसानों ने बीमा कराया है। इसमें छह करोड़ 58 लाख रुपये का बीमा हुआ है और किसानों द्वारा 17 लाख रुपये प्रीमियम जमा किया है। वहीं, रबी फसल (गेहूं) में 3431 किसानों ने 13 करोड़ 33 लाख रुपये का बीमा कराया और 20 लाख रुपये प्रीमियम जमा किया।
बात बीमा प्रक्रिया की करें तो पिछले वर्ष के बीमित किसानों को फसल नष्ट होने पर मुआवजा नहीं मिल पाया है, हालांकि विभागीय अधिकारियों का कहना है कि बीमा कंपनी की सर्वे प्रक्रिया चल रही है और प्रक्रिया पूरी होते ही किसानों को मुआवजा राशि प्रदान कर दी जाएगी। किसान बीमा कंपनी की कार्यशैली से नाखुश नजर आ रहे हैं। उनकी मांग है कि मुआवजा राशि प्रदान करने की प्रक्रिया को सरल किया जाना चाहिए।
छोटे किसानों पर कम ध्यान
देखने में यह भी आया है कि योजना में जोड़े गए किसानों में करीब 70 फीसद से ज्यादा बड़े किसान हैं। जबकि, छोटे किसान योजना से कम ही जुड़ पाए हैं। इस पर भी विभाग को जोर देने की जरूरत है।
नकदी फसलों को प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना की दरकार
टिहरी संसदीय क्षेत्र में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में किसान खास दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं। कारण ये हैं कि इस बीमा योजना में केवल गेहूं, धान व मंडवा को ही शामिल किया गया है। जबकि पछवादून से लेकर घनसाली तक नकदी फसलें किसानों की आजीविका का मुख्य जरिया है।
भटवाड़ी के ढासड़ा गांव निवासी किसान राजेंद्र पंवार कहते हैं कि प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना किसानों के लिए काफी उपयोगी है। इस योजना के अंतर्गत प्राकृतिक आपदा, असफल बुआई के कारण होने वाली क्षति, फसल कटाई के बाद हुई क्षति का बीमा भी किसानों को मिलने का प्रावधान है।
इस योजना में केवल धान, मंडवा और गेहूं की ही फसल शामिल की गई। मंडवा को छोड़ कर पहाड़ों में धान और गेहूं की फसल का उत्पादन काश्तकार बेहद कम करते हैं। इस योजना के अंतर्गत चौलाई, राजमा, आलू, टमाटर, मटर, सेब आदि फसलों को भी शामिल किया जाना चाहिए था, जिससे काश्तकारों को इसका लाभ मिल सकता है।
पुरोला के कुराड़ा गांव निवासी महेश लाल कहते हैं कि प्रधानमंत्री बीमा योजना को लेकर अभी किसानों को जागरूक नहीं किया गया है। केवल वही किसान बीमा योजना का लाभ ले रहे हैं जो कृषि ऋण ले रहे हैं। मोरी ब्लॉक के सेवा गांव निवासी किशोर चौहान कहते हैं कि वर्ष 2017 में सौ सेब के पेड़ों का बीमा कर प्रीमियम जमा कराया था।
फसल भी खराब हुई, लेकिन आज तक उन्हें फसलों की कोई बीमा राशि नहीं मिली। अगर प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में सेब की फसल शामिल होती तो उन्हें भी फायदा मिलता। नौगांव के भाटिया गांव निवासी बिजलु ने बताया कि उन्होंने अपनी फसल का बीमा कराया था। फसल खराब हुई तो उनके खाते में 1234 की धनराशि आई है।
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