बाजारों में उमड़ रही भीड़, शारीरिक दूरी तार-तार; फिर भी कोरोना का गिरता ग्राफ राहत से ज्यादा हैरान करने वाला
प्रदेश में लोग कोरोना की भयावहता को लेकर जागरूक तो हैं लेकिन बेफिक्री कम नहीं हुई है। बाजार में उमड़ती भीड़ और सड़कों पर वाहनों का बढ़ता कोलाहल इसकी तस्दीक करता है। बावजूद इसके कोरोना के नए मामलों में कमी आना राहत देने से ज्यादा हैरान करता है।
देहरादून, विजय मिश्रा। अभी तक न तो कोरोना की वैक्सीन आई है और न इस बीमारी का कोई कारगर इलाज ईजाद हो पाया है। प्रदेश में लोग इस वायरस की भयावहता को लेकर जागरूक तो हैं, लेकिन बेफिक्री कम नहीं हुई है। बाजार में उमड़ती भीड़ और सड़कों पर वाहनों का बढ़ता कोलाहल इसकी तस्दीक करता है। बावजूद इसके कोरोना के नए मामलों में कमी आना राहत देने से ज्यादा हैरान करता है। सितंबर में जहां रोजाना नए मरीजों का आंकड़ा आराम से एक हजार पार कर जा रहा था। अब बामुश्किल पांच सौ तक भी नहीं पहुंच पा रहा है। सोचना वाली बात तो यह है कि कमी सिर्फ कोरोना के नए मामलों में ही नहीं आई है, बल्कि जांच की रफ्तार भी धीमी हुई है। साफ है कि अधिकारियों की गणितीय कुशलता बेचारे कोरोना पर भारी पड़ गई। अब आंकड़े तो आंकड़े होते हैं। भरोसा करना मजबूरी भी है और जरूरी भी।
बेचैन करती है यह तस्वीर
उत्तराखंड में कोरोना के नए मरीजों की संख्या भले ही जादुई तरीके से एकाएक कम हो गई हो, लेकिन इस वायरस के कारण काल कवलित होने वालों का आंकड़ा महकमे की गणितीय मशक्कत पर पानी फेरता नजर आ रहा है। अक्टूबर में हर रोज औसतन एक दर्जन कोरोना संक्रमितों की मौत हो रही है। इससे न सिर्फ मृत्यु दर, बल्कि अफसरों की पेशानी पर बल भी बढ़ते जा रहे हैं। इससे भी गंभीर यह है कि प्रदेश में कोरोना से हुई मौतों में आधे से ज्यादा हिस्सेदारी राजधानी देहरादून की है। वही देहरादून, जहां चिकित्सा सुविधाएं सबसे स्तरीय हैं। कोरोना से हो रही मौतों पर अफसर यह तर्क देकर भले ही खुद को दिलासा दे लें कि मरने वालों को पहले से कोई न कोई गंभीर बीमारी थी, वगैरह वगैरह...।लेकिन, सवाल तो यह भी बनता है कि अधिकारियों की गणितीय कुशलता इस मोर्चे पर काम क्यों नहीं आ रही?
अब नहीं जनता की फिक्र
मार्च 15। वह तारीख, जब प्रदेश में कोरोना का पहला मामला आया था। इसके बाद धीरे-धीरे यह आंकड़ा बढऩे लगा। इसके साथ ही चौक-चौराहों पर छुटभैये नेताओं और संगठनों की धमाचौकड़ी भी बढ़ गई। कभी मदद के नाम पर तो कभी सैनिटाइजेशन करने के बहाने सबने फोटो खिंचवाई और कई दिन तक सोशल मीडिया पर टिकाई। कुछ तो अखबारों में भी जगह पाने में सफल रहे। यह तब हो रहा था, जब कोरोना के इक्का-दुक्का मामले ही आ रहे थे, लेकिन बदलाव तो प्रकृति का शाश्वत नियम है। सो, धीरे-धीरे नेताजी की फोटो पर प्रतिक्रिया आनी कम हो गईं। अब नेताजी भी बदल गए हैं। सैनिटाइजेशन मशीन किनारे रख दूसरे काम-धंधों पर जोर दे रहे हैं।...और तो और नगर निकाय भी नेता जी के नक्शेकदम पर ही चल रहे हैं। अब जब मरीजों की संख्या रोजाना सैकड़े में सामने आ रही है तो आम आदमी को उसके हाल पर छोड़ दिया गया है।
त्योहार मनाएं, सतर्कता न बिसराएं
देश में ऐसे गिनती के ही लोग होंगे, जो मार्च के बाद किसी त्योहार या समारोह का सामान्य दिनों की तरह लुत्फ उठा पाए हों। अब अनलॉक के पांचवें चरण में बंदिशों में छूट मिली है और त्योहारी सीजन भी करीब है। फिर जश्न तो बनता है। जाहिर है कि आगामी दिनों में बाजार में खरीदारी के लिए भीड़ बढ़ेगी, जो आर्थिक गतिविधियों को पटरी पर बनाए रखने के लिए जरूरी भी है। लेकिन, इससे भी जरूरी है कोरोना संक्रमण से बचाव। हालिया दिनों की ही बात है, केरल में ओणम पर मिली ढील का लुत्फ उठाने की कोशिश में केरलवासियों ने कोरोना के प्रति थोड़ी सी बेफिक्री दिखाई और नतीजा भयावह रहा। तब से केरल में कोरोना के मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं। इसलिए त्योहार का लुत्फ उठाएं, मगर कोरोना के खतरे को नजरअंदाज न करें। वरना केरल की तरह यहां भी हालात बिगड़ने में देर नहीं लगेगी।