चुनाव नजदीक, कांग्रेस में फिर सतह पर कलह
उत्तराखंड में दो बार सत्ता में रह चुकी कांग्रेस इन दिनों अपना अस्तित्व बचाने के लिए जूझ रही है मगर पार्टी का अंदरूनी कलह है कि थमने का नाम नहीं ले रहा। वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस केवल 11 सीटों पर जीत दर्ज कर पाई।
देहरादून, राज्य ब्यूरो। उत्तराखंड में दो बार सत्ता में रह चुकी कांग्रेस इन दिनों अपना अस्तित्व बचाने के लिए जूझ रही है, मगर पार्टी का अंदरूनी कलह है कि थमने का नाम नहीं ले रहा। वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस केवल 11 सीटों पर जीत दर्ज कर पाई, लेकिन अब भी, जबकि अगले चुनाव को महज सवा साल का वक्त बाकी है, पार्टी की गुटबाजी सतह पर नजर आ रही है। पार्टी साफ तौर पर दो धड़ों में बंटी दिख रही है। एक खेमा पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव हरीश रावत का है, तो दूसरी तरफ है कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह व नेता प्रतिपक्ष डॉ इंदिरा हृदयेश की जुगलबंदी।
सत्ता में या बाहर, खींचतान रही बरकरार
उत्तराखंड ने हाल ही में अपनी स्थापना के 20 साल पूरे किए हैं। इस वक्फे के ठीक आधे, यानी 10 साल कांग्रेस यहां सत्ता में रही है। साफ है कि कांग्रेस का उत्तराखंड में व्यापक जनाधार है। इसके बावजूद कांग्रेस के साथ यह दिलचस्प तथ्य जुड़ा हुआ है कि पार्टी सत्ता में रहे या सत्ता से बाहर, अंदरूनी खींचतान हमेशा चलती रहती है। तमाम मुददों पर पार्टी के दिग्गज नेताओं का स्टैंड अलग-अलग दिखता रहता है। इसकी शुरुआत राज्य गठन के बाद वर्ष 2002 में हुए पहले विधानसभा चुनाव से ही हो गई थी। तब पहली अंतरिम सरकार बनाने वाली भाजपा को कांग्रेस ने सत्ता से बेदखल किया था।
मेहनत हरीश की, ताज मिला तिवारी को
ये चुनाव कांग्रेस ने हरीश रावत के नेतृत्व में लड़े मगर जब मौका आया मुख्यमंत्री बनने का, आलाकमान ने नारायण दत्त तिवारी को हरीश रावत पर तरजीह दे दी। तिवारी के मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने से पहले ही कांग्रेस में जोरदार बवाल शुरू हो गया। स्वाभाविक रूप से हरीश रावत के समर्थकों को आलाकमान का यह फैसला नागवार गुजरा। इसका परिणाम यह हुआ कि तिवारी को अपने पूरे कार्यकाल में अंतरविरोध से गुजरना पड़ा। यह बात अलग है कि अपने रणनीतिक कौशल और लंबे सियासी तजुर्बे के बूते वह पूरे पांच साल सरकार चलाने में कामयाब रहे और ऐसा करने वाले वह अब तक के अकेले मुख्यमंत्री हैं।
हरीश की ताजपोशी, महाराज को नहीं आया रास
कांग्रेस वर्ष 2012 में हुए तीसरे विधानसभा चुनाव में फिर भाजपा को सत्ता से बाहर करने में कामयाब रही। इस बार कांग्रेस आलाकमान ने विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपी। तब हरीश रावत के साथ ही सतपाल महाराज भी मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे। परिणाम वही, पार्टी के अंदर का असंतोष तमाम मौकों पर जाहिर हुआ। फिर वर्ष 2014 में कांग्रेस ने विजय बहुगुणा को हटा आखिरकार हरीश रावत की मुराद पूरी करते हुए उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया। यह फैसला सतपाल महाराज को रास नहीं आया और वह इसके ठीक बाद लोकसभा चुनाव के मौके पर कांग्रेस का हाथ झटक भाजपा में शामिल हो गए।
सियासत का तजुर्बा, मगर नहीं साध पाए अपनों को
यूं तो हरीश रावत सियासी तजुर्बे के लिहाज से कांग्रेस के दिग्गजों में शुमार किए जाते हैं, लेकिन मुख्यमंत्री बनने के बाद वह अपनी पार्टी के विधायकों को साधने में नाकामयाब रहे। इसकी परिणति हुई मार्च 2016 में पार्टी की टूट के रूप में। पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा और तत्कालीन कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत समेत नौ विधायकों ने कांग्रेस छोड़ भाजपा का दामन थाम लिया। हरीश रावत हालांकि तब अपनी सरकार बचाने में सफल रहे, मगर पार्टी में बिखराव को वह नहीं रोक पाए। मई 2016 में एक अन्य कांग्रेस विधायक भी भाजपा में शामिल हो गईं। हालांकि इस स्थिति में हरीश रावत पार्टी के एकछत्र नेता जरूर बन गए।
कांग्रेस का सबसे शर्मनाक प्रदर्शन, बनी टीम 11
कांग्रेस में बिखराव का सिलसिला यहीं नहीं थमा, वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले तत्कालीन कैबिनेट मंत्री और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रहे यशपाल आर्य ने भी भाजपा की राह पकड़ ली। कांग्रेस की इस स्थिति में चुनाव के नतीजे वही रहे, जैसी उम्मीद थी। कांग्रेस 70 सदस्यों की विधानसभा में 11 के आंकड़े पर सिमट गई। मुख्यमंत्री रहते हुए हरीश रावत खुद दो-दो सीटों से चुनाव हार गए। सत्ता से बाहर होने के बाद कांग्रेस में नए क्षत्रपों के रूप में कई नेता उभरे। नेता प्रतिपक्ष इंदिरा हृदयेश के साथ ही कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह ने पार्टी पर पकड़ बनाने की कोशिश शुरू की, उधर रावत खेमा भी अपनी मशक्कत में जुटा रहा।
असोम या पंजाब, हरीश रमे बस उत्तराखंड में
कांग्रेस आलाकमान ने इस घमासान को देखते हुए हरीश रावत को असोम का प्रभार सौंप दिया, लेकिन इसके बावजूद रावत का उत्तराखंड की सियासत के प्रति मोह कम नहीं हुआ। कुछ ही वक्त पहले कांग्रेस ने हरीश रावत को कांग्रेस कार्यसमिति में जगह देते हुए उन्हें पंजाब जैसे महत्वपूर्ण राज्य का प्रभार सौंप दिया। इसके बाद रावत उत्तराखंड की सियासत में और ज्यादा मुखर होकर आगे आए हैं। अकसर देखा गया कि प्रदेश कांग्रेस के समानांतर हरीश रावत के कार्यक्रम आयोजित किए गए। इसका नतीजा यह हुआ कि लाइमलाइट में रावत और प्रदेश कांग्रेस पीछे छूट गई। हाल के कुछ दिनों में तो रावत पूरी तरह प्रदेश इकाई पर हावी नजर आए।
क्या अब भी दिग्गजों को नहीं दिख रहा भविष्य
कांग्रेस छोड़ भाजपा में गए नेताओं की हाल में सरकार से नाराजगी दिखने के बाद प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रीतम सिंह और नेता प्रतिपक्ष इंदिरा हृदयेश ने उनकी पार्टी में वापसी की संभावनाओं को देख रेड कार्पेट बिछाया, तो हरीश रावत खेमा इसके पूरी तरह खिलाफ खड़ा हो गया। दरअसल, इन्हीं कुछ नेताओं के कारण वर्ष 2016 में रावत की सरकार जाते-जाते बची थी। रावत खेमे को लगता है कि इन्हीं की वजह से वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस अपने निम्नतम स्तर तक पहुंची। अब जबकि अगले विधानसभा चुनाव बस सवा साल दूर हैं, कांग्रेस की यह अंदरूनी लड़ाई भविष्य की संभावनाओं पर सवाल खड़े कर रही है। देखते हैं कांग्रेस के सूबाई दिग्गजों को यह बात समझ आती है या नहीं।