उत्तराखंड: भिक्षावृत्ति के आगे बेबस प्रशासन, भीख मांगना या देना अपराध की श्रेणी में; पांच साल तक की सजा
भिक्षावृत्ति पर प्रतिबंध के बावजूद इस पर रोक नहीं लग पा रही है। स्थिति यह है कि यह व्यवसाय का रूप ले चुकी है। हर शनिवार व प्रमुख पर्वों पर तीर्थ स्थलों व मुख्य शहरों में भिक्षावृत्ति करने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है।
देहरादून, विकास गुसाईं। उत्तराखंड में भिक्षावृत्ति पर प्रतिबंध के बावजूद इस पर रोक नहीं लग पा रही है। स्थिति यह है कि यह व्यवसाय का रूप ले चुकी है। हर शनिवार व प्रमुख पर्वों पर तीर्थ स्थलों व मुख्य शहरों में भिक्षावृत्ति करने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है, जिन पर रोक लगाने में पुलिस व प्रशासन बेबस है।
प्रदेश सरकार ने भिक्षावृत्ति पर रोक के लिए भिक्षावृत्ति निषेध अधिनियम लागू किया हुआ है। इस अधिनियम में व्यवस्था है कि सार्वजनिक स्थलों पर भीख मांगना या देना, दोनों ही अपराध की श्रेणी में आएगा। इसमें बगैर वारंट गिरफ्तारी का भी प्रविधान है। दूसरी बार अपराध सिद्ध होने पर सजा की अवधि पांच साल तक हो सकती है। निजी स्थलों पर भिक्षावृत्ति की लिखित और मौखिक शिकायत पर अधिनियम की धाराओं के तहत कार्रवाई की भी व्यवस्था है, मगर कानून होने के बावजूद इसका अनुपालन होता कहीं नजर नहीं आ रहा है।
आटोमेटेड टेस्टिंग लेन का इंतजार
प्रदेश में वाहनों के परीक्षण के लिए 11 वर्ष पूर्व बनाई गई योजना आज तक धरातल पर नहीं उतर पाई है। अंतर इतना आया है कि पहले राज्य में एक लेन प्रस्तावित थी, अब हर जिले में इसे बनाने की बात चल रही है। इसके लिए बजट की व्यवस्था करने की बात कही तो जा रही है लेकिन अब अगले वित्तीय वर्ष तक का इंजार करना पड़ेगा। दरअसल, प्रदेश में बढ़ती दुर्घटनाओं के ग्राफ को देखते हुए वर्ष 2009 में ऋषिकेश में आटोमेटेड टेस्टिंग लेन बनाने की स्वीकृति प्रदान की गई। तीन करोड़ का बजट भी स्वीकृत हुआ। टेस्टिंग लेन का फायदा यह कि इसमें वाहनों की फिटनेस तेजी से जांची जा सकती है। अब सड़क दुर्घटनाओं के आंकड़े बढ़ रहे हैं तो सरकार इनकी संख्या बढ़ाने पर भी जोर दे रही है। हर जिले में लेन बनाने की बात हो रही है लेकिन धरातल पर एक भी नहीं है।
राजनीति में फंसी अच्छी योजना
प्रदेश में पलायन एक बड़ी समस्या के रूप में सामने आया है। इसके लिए हर सरकार योजना बनाने का दावा करती है। अब तो पलायन आयोग भी गठित है। बावजूद इसके कई बार राजनीति के चलते अच्छी योजनाएं भी बिसरा दी जाती हैं। ऐसी ही एक योजना है 'मेरा गांव-मेरा धन, मेरा पेड़-मेरा धन योजना'। वर्ष 2015 में तत्कालीन सरकार ने यह योजना शुरू की थी। इसका मकसद खाली हो रहे गावों को आबाद करना था। योजना के तहत प्रवासी सहित अन्य स्थानीय निवासियों को गांव में निवेश के लिए प्रोत्साहित किया गया। इसमें गांवों में पौधा रोपण और भवन निर्माण भी प्रस्तावित किए गए। शुरुआत में थोड़ा काम हुआ, फिर चुनावी वर्ष तक पहुंचते-पहुंचते योजना बिसरा दी गई। नई सरकार ने योजना के औचित्य पर सवाल उठाए और इसे बंद कर दिया। अब चुनाव नजदीक हैं, तो एक बार फिर से इस योजना की बात की जाने लगी है।
चाहिए एक अदद ग्लेशियोलाजी सेंटर
आपदा की दृष्टि से संवेदनशील उत्तराखंड में लगातार ग्लेशियरों पर निगरानी की जरूरत महसूस की जा रही है। प्रदेश में इस समय 700 से अधिक छोटे-बड़े ग्लेशियर हैं। वर्ष 2009 में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने सेंटर फार ग्लेशियोलाजी की स्थापना की। साथ ही मसूरी में इंडियन इंस्टीट्यूट आफ ग्लेशियोलाजी स्थापित करने का निर्णय लिया। इसके लिए 500 करोड़ रुपये का बजट स्वीकृत किया गया। इसमें से 23 करोड़ रुपये जारी भी किए गए। यहां 90 विज्ञानियों व अन्य स्टाफ को तैनात करने की बात हुई। इसके बाद बीते वर्ष बीते वर्ष केंद्र सरकार ने वाडिया संस्थान में ही इसे शामिल करने का निर्णय ले लिया। यह प्रदेश के लिए बड़ा झटका था। इसके बाद चमोली में एवलांच आने और इस वर्ष भारी बरसात से हुई तबाही को देखते हुए नए सिरे से इसकी जरूरत महसूस की जा रही है। इसके लिए वैज्ञानिक संस्थान केंद्र को भी पत्र भेज चुके हैं।
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