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समाज के लिए समर्पण को बनाया जीवन का आदर्श, छोड़ी अमिट छाप

राज्य आंदोलन हो या फिर राज्य के ज्वलंत मुद्दे। डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट ने जो संघर्ष शुरू किया, उसे अंजाम तक पहुंचाने तक चैन की सांस नहीं ली।

By Edited By: Published: Sat, 22 Sep 2018 10:55 PM (IST)Updated: Sun, 23 Sep 2018 09:22 AM (IST)
समाज के लिए समर्पण को बनाया जीवन का आदर्श, छोड़ी अमिट छाप
समाज के लिए समर्पण को बनाया जीवन का आदर्श, छोड़ी अमिट छाप

अल्‍मोड़ा, [बृजेश तिवारी]: जन मुद्दों के लिए उन्होंने अपने जीवन को समर्पित कर दिया। तमाम प्रलोभन भी उन्हें उनके आदर्शों से डिगा नहीं पाए। यही कारण था कि वह समाज के हर वर्ग के चहेते थे। राज्य आंदोलन हो या फिर राज्य के ज्वलंत मुद्दे। उन्होंने जो संघर्ष शुरू किया, उसे अंजाम तक पहुंचाने तक चैन की सांस नहीं ली। आम इंसान के हक हकूकों के लिए उन्होंने आंदोलन चलाकर पर्वतीय जन मानस में अपनी जो अमिट छाप छोड़ी, उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता।

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हम बात कर रहे हैं सामाजिक चिंतक, वरिष्ठ पत्रकार, विचारक और प्रमुख राज्य आंदोलनकारी डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट की। डॉ. बिष्ट अपनी वर्ष 1974 में अल्मोड़ा विश्वविद्यालय में छात्र संघ के अध्यक्ष बने। छात्र जीवन से ही संघर्षशील विचारधारा के बिष्ट ने तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार के खिलाफ जन आंदोलन शुरू किया और कुमाऊं विवि की स्थापना कराने में सफलता प्राप्त की।

अल्मोड़ा में पेयजल के लिए आंदोलन के साथ ही पर्वतीय क्षेत्रों की लकड़ी को औने- पौने दाम पर बेचने के तत्कालीन सरकार के निर्णय के खिलाफ उन्होंने अपने सहयोगियों के साथ स्टार पेपर मिल के खिलाफ कड़ा मोर्चा खोला। वर्ष 1977 के दौर में डॉ. बिष्ट व उनके अनेक सहयोगियों के नेतृत्व में पर्वतीय युवा मोर्चा, ग्रामोत्थान छात्र संगठनों का निर्माण किया गया और गरीब और जरूरतमंद लोगों को इन संगठनों से जोड़कर जन चेतना को जगाने का प्रयास किया गया।

जिसके लिए डॉ. बिष्ट के नेतृत्व में तमाम पद यात्राएं की गई। 1977 के दौर में आपातकाल के समय सरकार की तानाशाही के विरोध में उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी का निर्माण किया और इसकी कड़ी खिलाफत की गई। उस दौर में चंडी प्रसाद भट्ट, स्व. विपिन त्रिपाठी, राजीव लोचन साह, पीसी तिवारी जैसे संघर्षशील व्यक्ति डॉ. बिष्ट के साथ इन संघर्षों के साथी बने। जंगलों के बचाने के लिए नैनीताल में हुए चिपको आंदोलन भी बिष्ट ने अपनी सक्रिय भागीदारी की।

सरकार द्वारा जबर्दस्ती कराई जा रही नीलामी का विरोध किया गया। इस आंदोलन के दौरान नैनीताल क्लब के जलने समेत अनेक प्रमुख घटनाएं इतिहास का गवाह भी बनी। आंदोलनों के परिणाम स्वरूप सरकार की नीतियों के खिलाफ जंगलों को बचाने के लिए चलाए जा रहे आंदोलनों का ही परिणाम था कि उस दौर में जगह- जगह आंदोलनों की चिंगारी आग बनकर फैली।

भगीरथ लाल चौधरी समेत अनेक बड़े छात्र नेता गिरफ्तार किए गए और पहली बार 23 और 24 फरवरी 1978 को उत्तराखंड बंद किया गया, जो सफल रहा। हिमालयन कार रैली के विरोध के साथ ही नशा नहीं रोजगार दो और उत्तराखंड राज्य आंदोलन में उनकी सक्रिय भागीदारी भी इतिहास के स्वर्णिम पन्नों में दर्ज है।

राज्य आंदोलन में भी सही यातनाएं 

उत्तराखंड राज्य आंदोलन में अपनी सक्रियता के कारण डॉ. बिष्ट अपने साथियों के साथ कई बार जेल में भी रहे। राज्य आंदोलन के दौरान जनगीतों के साथ जहां उनका सफर शुरू होता वहां एक कारवां बनता चला जाता। 1994 से राज्य गठन तक उन्होंने इस आंदोलन में अपनी सक्रियता बनाए रखी और तमाम यातनाओं के बाद भी आंदोलन को ठंडा नहीं पडऩे दिया। 

छात्र संघों को समाज से जोडऩे की थी मंशा 

1974 में छात्र संघ के अध्यक्ष बनने के बाद डॉ. बिष्ट ने छात्र संगठनों को समाज से जोडऩे की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किए। छात्र राजनीति के दौरान स्थानीय आंदोलनों के अलावा डॉ. बिष्ट ने जयप्रकाश नारायण स्वामी अग्निवेश के आंदोलनों में भी भाग लिया और दिल्ली और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में भी आंदोलनों की रणनीति तैयार की। उस दौर में डॉ. बिष्ट राष्ट्रीय आंदोलनों में पहाड़ के एक खास चेहरे में शुमार थे। 

चालीस दिन रहे सलाखों के पीछे 

1984 में नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन को डॉ. बिष्ट ने एक नई धार दी। जगह जगह पदयात्राओं व आंदोलनों की चिंगारी ऐसी फैली की सरकारी तंत्र की चूलें हिल गई। इस दौरान डॉ. बिष्ट को चालीस दिन जेल में भी काटने पड़े। लेकिन यह डॉ. बिष्ट व इस आंदोलन के सदस्यों की जीवटता ही थी कि सरकार को आबकारी नीति में परिवर्तन करना पड़ा।

''जंगल के दावेदार' पत्र से दी आंदोलन को धार 

जन संघर्षों को मुकाम तक पहुंचाने के लिए डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट और उनके सहयोगियों ने उस दौर में एक अखबार का प्रकाशन भी किया। जंगल के दावेदार नाम से प्रकाशित होने वाले इस पत्र ने जल, जंगल, जमीन के मुद्दों के साथ ही लकड़ी, लीसा और शराब माफियाओं के खिलाफ खुलकर आवाज उठाई। करीब दस सालों तक यह पत्र जनता की आवाज बना और आम आदमी की लड़ाई लड़ता रहा।

हम लड़ते रैंया भुलु, हम लड़ते रूंलौ ...

जनकवि गिरीश तिवारी गिर्दा की जन संघर्ष की यह लाइनें डा. बिष्ट पर सटीक बैठती हैं। डॉ. बिष्ट ने शुरू से लेकर अपने अंतिम क्षणों तक संघर्ष की इस गाथा को रूकने नहीं दिया। शुक्रवार को भी स्वास्थ्य खराब होने के बाद भी वह अपने साथियों से राज्य की वर्तमान स्थिति पर चिंता को लेकर बातचीत करते रहे। उनके साथियों को भी इस बात का अहसास नहीं था कि संघर्षों के इस पुरोधा को उन्हें इसी गीत के साथ शनिवार को अंतिम विदाई देनी पड़ेगी।

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