मिशन पोषण सुरक्षा : जंगलों में निवास करने वाले वनवासियों को खेती की मुख्य धारा से जोड़ेगा एनबीएआइएम
जंगलों में निवास करने वाली जनजातियां आज भी समाज की मुख्य धारा से कटी हुई हैं। जड़ी-बूटियों व जंगली पेड़-पौधों व जानवरों के भरोसे जीवनयापन कर रही हैं।
मऊ [शैलेश अस्थाना]। जंगलों में निवास करने वाली जनजातियां आज भी समाज की मुख्य धारा से कटी हुई हैं। जड़ी-बूटियों व जंगली पेड़-पौधों व जानवरों के भरोसे जीवनयापन कर रही हैं। ऐसे वनवासी समूहों को खेती की मुख्य धारा से जोड़कर उन्हें समाज के बीच लाने में अपनी भूमिका निभाएगा राष्ट्रीय कृषि उपयोगी सूक्ष्मजीव ब्यूरो। भारत सरकार के अनुसूचित जनजाति उप योजना के अंतर्गत इस आशय का प्रस्ताव भारत सरकार को किया गया है। हालांकि जनपद के कुशमौर में स्थित एनबीएआइएम के कार्यक्षेत्र पूर्वी उत्तर प्रदेश में इस तरह की जनजातियां अत्यंत कम हैं, फिर भी मंत्रालय की मंशा को मूर्त रूप देने के लिए ब्यूरो के वैज्ञानिक इसके व्यावहारिक पहलू को लेकर कार्य योजना बनाने में जुट गए हैं। इस परियोजना से ब्यूरो के प्रयासों से पूर्वी उत्तर प्रदेश के जनपदों में निवास करने वाले अनुसूचित जनजाति के लोगों का जीवन और पोषण स्तर भी ऊंचा उठ सकेगा।
इस संबंध में ब्यूरो के निदेशक डा.एके सक्सेना ने बताया कि प्राय: जंगली या पिछड़े क्षेत्रों में रहने वाली अनुसूचित जनजातियों के लोग कुपोषण के भी शिकार हैं। इसका कारण उनका खेती की मुख्य धारा से अलग-थलग होना है। जबकि भारत की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा जनजातियों का है। जनजातीय कार्य मंत्रालय (भारत सरकार) के मुताबिक, जनजातियों की संख्या, 1961 की जनगणना के अनुसार, 3 करोड़ थी; जो अब वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार बढ़कर 10.5 करोड़ हो चुकी है। यानी आज भारत की आबादी के 8.5 प्रतिशत से ज्यादा लोग जनजातीय समुदाय से हैं। ऐसे में उन्हें पोषण सुरक्षा मुहैया कराकर स्वस्थ भारत के निर्माण में ब्यूरो अपना योगदान दे सकता है।
डा.सक्सेना बताते हैं कि अभी दो वर्ष पूर्व उत्तर बिहार के अनेक जनजातीय बहुल जनपदों यथ मधुबनी, सहरसा, दरभंगा, झारखंड की राजधानी रांची आदि क्षेत्रों में डा.राजेंद्र प्रसाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के प्रोफेसर दयाराम द्वारा चलाई जा रही जनजातीय उत्थान परियोजना में ब्यूरो ने अग्रणी भूमिका निभाई है। जनजातीय लोगों को मशरूम उत्पादन का प्रशिक्षण दे उनका कौशल विकास करते हुए पोषण सुरक्षा तथा आय के साधन मुहैया कराए गए हैं। इससे उन समूहों का आर्थिक विकास तो हुआ ही है। कुपोषण की समस्या दूर करने में भी मदद मिली है।
मशरूम ही क्यों : डा.सक्सेना बताते हैं कि जनजातीय समूहों के परिवेश में तात्कालिक रूप से मशरूम की खेती का प्रशिक्षण उनका सर्वांगीण जीवन स्तर बदलने की क्षमता रखता है। इसके लिए अलग से बहुत लंबे-चौड़े भूखंड की आवश्यकता नहीं होती और मशरूम अपने आप में प्रचुर प्रोटीनयुक्त अत्यंत ही समृद्ध पोषक पदार्थ है। यह बाजार में महंगा बिकता भी है। इसकी खेती का प्रशिक्षण देकर जनजातीय समुदाय के लोगों का कौशल विकास आसानी से किया जा सकता है तथा इसके शीघ्र परिणामों से उन्हें लाभान्वित किया जा सकता है। इस परियोजना से पूर्वी उत्तर प्रदेश के जनपदों में निवास करने वाले जनजातीय समूहों का जीवन स्तर बदले जाने की योजना है।