भक्ति, शरणागति और लोकमंगल की गाथा है 'मानस का हंस' और 'बाल गंधर्व' में मराठी नाट्यमंच का अद्भुत बखान
भक्ति शरणागति और लोकमंगल की गाथा है अमृतलाल नागर का मानस का हंस तो वहीं अभिराम भडकमकर की कृति बाल गंधर्व में मराठी नाट्यमंच का अद्भुत बखान नजर आता है। दोनों ही किताबें साहित्य की संग्रहणीय कृति हैं।
नई दिल्ली, यतीन्द्र मिश्र। हिंदी उपन्यासकार अमृतलाल नागर ने अपने उपन्यासों में भारत का एक हद तक सांस्कृतिक इतिहास भी लिखा है। ‘मानस का हंस’, ‘खंजन नयन’ और ‘नाच्यौ बहुत गोपाल’ जैसी कृतियां उनके परंपरा में डूबने का पता देती हैं। भारतीय स्वंतत्रता के हीरक जयंती वर्ष में उनके काम का मूल्यांकन हर लिहाज से महत्वपूर्ण है, जिसके चलते हमें पारंपरिक ढंग से हिंदी पट्टी में होने वाली उन सांस्कृतिक हलचलों की भी शिनाख्त मिलती है, जिसके लिए कई बार हिंदी साहित्य का इतिहास लेखन भी पूरी जानकारी नहीं दे पाता।
मध्ययुगीन भक्तिकाल के शिखर कवि गोस्वामी तुलसीदास के जीवन को आधार बनाकर लिखा गया उनका महाकाव्यात्मक उपन्यास ‘मानस का हंस’ भक्ति और शरणागति के उस अछोर पर खड़ा है, जहां से संस्कृति दर्शन के साथ हमें भारत की लोक बोलियों में बसी हुई आस्था और विश्वास की झलक मिलती है। यह एक विचित्र तथ्य है कि पूरी भारतीय वांगमय परंपरा जिस श्रीराम भक्ति काव्य ‘श्रीरामचरितमानस’ को अपना कंठहार बनाती है, उसके प्रणेता को लेकर इससे पहले कभी व्यापक स्तर पर औपन्यासिक काम नहीं हुआ। यह अलग बात है कि तुलसीदास की लोकधर्मी छवि और उनके रचनात्मक अवदान को लेकर प्रबुद्ध वर्ग और लेखकों ने ढेरों समीक्षात्मक और आलोचनात्मक ग्रंथ लिखे हैं।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल की ‘तुलसीदास’ इस मामले में तुलसीदास को समझने के लिए एक बड़ा साहित्यिक हस्तक्षेप मानी जाती है। यह उपन्यास पहली बार 1972 में प्रकाशित हुआ और आज ठीक 50 वर्ष पूरे हो जाने के बाद भी अपनी रचनात्मक उपस्थिति से उपन्यास जगत में एक सार्थक कृति के रूप में जाना जाता है। यह भी उल्लेख करना आवश्यक है कि गोस्वामी तुलसीदास की तरह ही ढेरों अन्य संत, निर्गुणियों के जीवन के बारे में अधिकृत जानकारी का सर्वथा अभाव मिलता है। इसलिए नागर जी ने इस जीवनगाथा को लिखने के लिए लोक में प्रचलित किंवदंतियों और विश्वास में पगी हुई तमाम गाथाओं, कहानियों, गोस्वामी जी से संबंधित भक्ति आख्यानों को आधार बनाकर उपन्यास की सर्जना की।
अमृतलाल नागर की वैचारिकी में मौजूद सांस्कृतिक अवगाहन की पड़ताल के लिए भी ‘मानस का हंस’ पढ़ी जानी चाहिए। यह एक तरह से उनके अपने व्यक्तित्व और विचारधारा का भी कुछ पक्ष उद्घाटित करती है। वे जब तुलसीदास को लेकर इस उपन्यास की रचना में उतरते हैं, तो भक्तिकाल के ही दूसरे कवि और अष्टछाप के प्रमुख स्तंभ सूरदास को लेकर ‘खंजन नयन’ की रचना करते हैं। एक तरह से देखने पर यह दोनों ही उपन्यास एक-दूसरे का पूरक पाठ लगते हैं, जहां राम और कृष्ण की जगत प्रसिद्धि के लिए जिम्मेदार दो बड़े संत कवि अपने-अपने जीवन के साथ उपस्थित हैं। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि वर्णन की अपनी खास शैली, लखनवी जुबान और टकसाली मुहावरेदानी भाषा के लिए नागर जी विख्यात रहे हैं।
उस शिल्प का भी सार्थक संयोजन करते हुए उन्होंने तुलसीदास को उकेरते समय उस अवध की जमीन का भी विशेष ध्यान रखा है, जो रामश्रयी काव्य की प्रखर धरती होने के साथ ही परंपरा में गंगा-जमुनी संस्कृति का एक बड़ा प्रतीक रही है। उपन्यास न तो पूरी तरह धार्मिक ढंग का कलेवर लिए है और न ही इतिहास की गलियों में घूमते हुए उसे कुछ पुराने ढंग का बनाता है। जन आस्था के द्वारा संचालित लोक विश्वास और जनश्रुतियों के मैत्रीपूर्ण संयोजन से लिखा गया यह आख्यान, दरअसल इतिहास में एक भक्त कवि की चिंतना को सामाजिक स्तर पर विश्लेषित करता है। नागर जी ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर इसे प्रासंगिक बनाते हुए आधुनिक ढंग का स्वर भी देते हैं, जिसमें बहुतेरे ऐसे प्रसंग शामिल हैं, जिनसे आस्थावान लोगों को परेशानी हो सकती है। जैसे- युवा तुलसीदास के जीवन में मोहिनी प्रसंग का समावेश विशेष तौर पर लक्ष्य किया जा सकता है। यह भी अपने आपमें एक महत्वपूर्ण बात है कि तुलसीदास के माध्यम से वे उस कालखंड का परिवेश भी चित्रित करते हैं, जब भक्तिकाल का युग अपने चरमोत्कर्ष पर था।
मान्यता है कि काशी निवासी संस्कृत विद्वान मेघा भगत से तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस के आधार पर रामलीला मंचन का आग्रह किया था। इसी जनश्रुति के आधार पर नागर जी मेघा भगत के सशक्त चरित्र का विन्यास उपन्यास में करते हैं, जो अपनी स्थितप्रज्ञता और भक्ति के कारण तुलसीदास के लिए प्रेरणा पुरुष थे। तुलसी की हर कृतियों को खंगालते हुए रचनाकार अपने नायक का चरित्र खड़ा करता है। नागर जी स्वीकारते हैं- ‘विनय पत्रिका में तुलसी के अंत:संघर्ष के ऐसे अनमोल क्षण संजोए हुए हैं कि उसके अनुसार ही तुलसी के मनोव्यक्तित्व का ढांचा खड़ा करना मुझे श्रेयस्कर लगा। श्रीरामचरितमानस की पृष्ठभूमि में मानसकार की मनोछवि निहारने में भी मुझे पत्रिका के तुलसी से सहायता मिली।’
वे यह भी रेखांकित करते हैं कि उन्हें इस संत कवि की झांकी जिन जगहों से मिली, उनमें ‘कवितावली’, ‘दोहावली’, ‘गीतावली’ और ‘हनुमान बाहुक’ भी आते हैं। तुलसी के लौकिक जीवन, रचनाधर्मिता के उदात्तीकरण और मनोविज्ञानी विशेषताओं को उस दौर में समझते हुए लोकमंगल के नायक का जो चरित्र सामने आया, वह अपनी सार्थकता को पूर्ण करता है। लोक विश्वास, जनश्रुतियों और ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर भी इसकी गुणवत्ता असंदिग्ध रही आई है।
मानस का हंस
अमृतलाल नागर
उपन्यास
पहला संस्करण, 1972
पुनर्प्रकाशित संस्करण, 2017
राजपाल एंड संज, नई दिल्ली
मूल्य: 475 रुपए
मराठी नाट्यमंच का अद्भुत बखान : आधुनिक मराठी नाट्यमंच के सिरमौर नायक, नारायण श्रीपाद राजहंस के जीवन और कलात्मक यात्रा का अद्भुत बखान ‘बालगंधर्व’ उपन्यास करता है। इन्हें बहुत छोटी अवस्था में गाते हुए जब लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने सुना तो ‘बालगंधर्व’ की उपाधि से विभूषित किया। वे मराठी रंगमंच के उन आरंभिक महत्वपूर्ण किरदारों में से एक हैं, जिनके साथ बलवंत पांडुरंग किर्लोस्कर, मास्टर कृष्णराव, बापू साहेब पेंढारकर, गोविंद बल्लाल देवल, गोविंदराव टेंबे और मास्टर दीनानाथ मंगेशकर को जोड़कर एक समृद्ध परंपरा बनती है। उपन्यास ढेरों आख्यानों, ‘मानापमान’, ‘स्वयंवर’, ‘सहचारिणी’ जैसे नाटकों के चित्रणों, किर्लोस्कर नाटक कंपनी, भास्कर बुआ बखले और उस्ताद अल्लादिया खां के संदर्भों समेत भावगीत, नाट्य संगीत की आवाजाही से भरा है। हर एक संदर्भ, बीते दौर का संस्मरण, उस कालखंड की चुनौतियों, संघर्षों, षडयंत्रों और सामाजिक दबावों को उन्मुक्त ढंग से खोलकर दिखाता है, जिसमें सामाजिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य तथ्यों के आधार पर आवाजाही करते हैंर्। हिंदी में अनुवाद के बाद भी उपन्यास अपनी रोचकता और सम्मोहन को संजोए रखता है। पठनीय, संग्रहणीय और प्रशंसनीय।
बालगंधर्व
आधुनिक मराठी रंगमंच के एक मिथक की तलाश
अभिराम भडकमकर
अनुवाद: गोरख थोरात
जीवनीपरक उपन्यास
पहला संस्करण, 2018
राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली
मूल्य: 399 रुपए