प्रवासी भारतीय दिवस : जोते खेत-चलाया हल, मेहनत से आस्ट्रेलिया में संवारा कल
मां और भाभी संग मैं खेती की जिम्मेदारी को भी संभालता, सुबह भैंस के लिए चारा काटना, उन्हें खिलाना फिर भैंस लगाकर चाय व मिठाई की दुकानों पर दूध देना काम था।
वाराणसी [मुहम्मद रईस] । कम उम्र में घर की जिम्मेदारी के बावजूद पढ़ाई जारी रखी। खेत जोते, कोन गोड़े, भैंस के लिए चारा भी काटा मगर पढ़ाई को लेकर संजीदगी कम न हुई। नतीजतन जिस बालक को पड़ोसी से लेकर रिश्तेदार उलाहना दिया करते थे, उसी ने पराए मुल्क में वैदिक चिकित्सा के क्षेत्र में झंडे गाड़ दिए।
हम बात कर रहे हैं आस्ट्रेलिया में आयुर्वेद चिकित्सा पद्धाति को बढ़ावा देने की दिशा में प्रयासरत गाजीपुर के मूल निवासी डा. संतोष यादव की। 'पढ़ाई-लिखाई इसके बस की बात नहीं। यह आगे पढ़ ही नहीं सकता।...' मां व भाभी संग खेतों में संतोष को काम करता देख अक्सर पड़ोसी व पटीदारों के मुंह से ये जुमले निकलते थे। जागरण संग बातचीत में इन बातों को याद कर संतोष भावुक हो जाते हैं। कहते हैं, 'कक्षा पांच के बाद साथ के सभी बच्चे शहर चले गए। आठवीं तक की पढ़ाई मैंने गांव के ही सुभाष विद्यालय से ही की। विद्यालय इतना जर्जर था कि गुरुजन विद्यालय के बाहर की कक्षाएं चलाते थे। पिता हरदेव सिंह यादव पीलीभीत में सरकारी नौकरी में थे। वेतन कम था, जिसका अधिकांश हिस्सा बड़े भैया की पढ़ाई पर ही खर्च हो जाता था। सात-आठ बीघा खेत था, लिहाजा गृहस्थी चलाने के लिए मेरा परिवार खेती पर ही आश्रित था। मां और भाभी संग मैं खेती की जिम्मेदारी को भी संभालता। सुबह उठकर भैंस के लिए चारा काटना, उन्हें खिलाना फिर भैंस लगाकर गांव के ही चाय व मिठाई की दुकानों पर दूध देना रोज का काम था।'
दस किलोमीटर पैदल चलकर पहुंचते थे स्कूल : नौंवी के लिए संतोष ने हनुमान सिंह कालेज में प्रवेश परीक्षा दी, जो उनके घर से 10 से 12 किलोमीटर दूर था। इतनी मुश्किल परीक्षा थी कि साथ के अन्य बच्चे इंट्रेंस निकाल ही नहीं पाए। एक बार फिर संतोष अकेले रह गए। खेत व घर के काम से फारिग होकर संतोष कभी उधार की साइकिल लेकर तो कभी पैदल ही स्कूल पहुंचते थे। वहीं शाम को वापस आने के बाद जानवरों की देखभाल और खेत में काम करते। संतोष बताते हैं कि, 'घर पर पढ़ाई-लिखाई का समय ही नहीं मिलता था। लोग कहते कि यह आगे नहीं पढ़ सकेगा। बावजूद इसके मैंने हाईस्कूल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। मेरा आत्मबल और भी बढ़ा क्योंकि उस वर्ष पूरे गांव में केवल मैंने ही 10वीं की परीक्षा पास की थी। इसके बाद आगे की पढ़ाई के लिए मैं भइया और पिता के पास पीलीभीत चला गया।'
दो वर्ष में जीवन भर की पढ़ाई : वहां तीन शिफ्ट में स्कूल चलता था। संतोष का दाखिला बायो ग्रुप में तीसरी यानी शाम की शिफ्ट में हुआ। संतोष बताते हैं कि, 'उन दो सालों में मैंने जीवन भर की पढ़ाई की। इंटर की परीक्षा 1992 में उत्तीर्ण की। उस वर्ष बायो ग्रुप में पूरे कालेज में मेरा सबसे बेहतर नंबर रहा।'
तैयारी में निकल गए दो वर्ष : 'इंटर की परीक्षा के बाद पिता जी रिटायर हो गए। सीपीएमटी परीक्षा की तैयारी के लिए मैं लखनऊ चला आया। दो वर्ष तैयारी में निकलने के बाद मैंने स्टेट आयुर्वेदिक कालेज-लखनऊ में बीएएमएस पाठ्यक्रम में प्रवेश लिया। 2002 में बीएएमएस की डिग्री लेने के बाद आयुर्वेद संका-बीएचयू के द्रव्यगुण विभाग से वर्ष 2005 में स्नातकोत्तर की पढ़ाई मुकम्मल की। इसी दौरान मैंने योग में डिप्लोमा भी किया।'
दो-चार मरीजों संग शुरू की प्रैक्टिस : स्नातकोत्तर के बाद दिसंबर 2006 में डा. संतोष यादव आस्ट्रेलिया पहुंचे। वहां तीन-चार माह संघर्ष के बाद अंतत: अप्रैल 2007 से आयुर्वेद चिकित्सा की प्रैक्टिस शुरू की। दो-चार मरीजों संग शुरूआत करने वाले डा. संतोष के पास रोजाना 40 से 50 मरीज पहुंचने लगे हैं। उनके पास 8000 डाटा बेस मरीज हैं।
माडर्न मेडिसिन के साथ है सहयोग : डा. संतोष के अनुसार आस्ट्रेलिया में उनका माडर्न मेडिसिन के साथ सहयोग है। वे पर्किंसन, अर्थराइटिस, अल्जाइमर, डायबिटीज, स्किन डिसआर्डर, सोरिएसिस, एग्जिमा, एलर्जी आदि का उपचार करते हैं।'