वाराणसी के असि इलाके की मझौली कोठी की दीवारों पर भव्यता की कहानी, रानी की थी कचहरी
वाराणसी के असि चौमुहानी से घाट की तरफ जाते समय एक जमाने में अपनी भव्यता की आभा से दमकती रही आलीशान मझौली कोठी हर नजर को आकर्षित करती है। कोठी के अंदर घुसते ही उत्तर दिशा की ओर विशाल व भव्य दरवाजा उसकी भव्यता की कहानी कहता है।
वाराणसी, राजेश त्रिपाठी। असि चौमुहानी से घाट की तरफ जाते समय एक जमाने में अपनी भव्यता की आभा से दमकती रही आलीशान मझौली कोठी हर नजर को आकर्षित करती है। कोठी के अंदर घुसते ही उत्तर दिशा की ओर विशाल व भव्य दरवाजा उसकी भव्यता की कहानी कहता है। दरवाजे से घुसते ही अंदर एक विशाल आंगन और उसके चारों ओर पहली मंजिल पर बनी बारादरी है।
कोठी में रहने वाले उमाशंकर शुक्ल बताते हैं कि कोठी का निर्माण 1883 में तत्कालीन सरगुजा (छत्तीसगढ़) नरेश ने कराया था। 1903 में सरगुजा राज्य के हरिहर शरण सिंह और महावीर शरण सिंह से मझौली राज्य के नरेश कौशल किशोर मल्ल की पत्नी चंद्रिका प्रसाद कुंवर ने अपनी बचत के पांच हजार मोहरों से खरीदा था। लगभग एक बीघा रकबे में बनी इस कोठी में छह विशाल आंगन हैं।
पहला आंगन मुख्य दरवाजे के सामने तो दूसरा अंदर है। तीसरे से चौथे आंगन में प्रवेश करने के लिए मुख्य द्वार से पूरब की ओर पश्चिम दिशा में एक भव्य प्रवेश द्वार है। तीसरे आंगन का भवन 25 वर्ष पूर्व तक इस स्थिति में था कि उसमें नगर पालिका का प्राथमिक स्कूल संचालित होता था जो इस समय बंद हो गया है। इसी आंगन में रानी की कचहरी थी जिसका अस्तित्व अब भी है। चौथे आंगन में राम-जानकी समेत पंच देवता का मंदिर और एक कुआं था। मंदिर अब अस्तित्व में नहीं है। छठे आंगन में रानी चंद्रिका प्रसाद कुंवर का निवास स्थान पूरब दक्षिण के कोण पर हुआ करता था। यह कोठी भारतीय-यूरोपीय शिल्प कला की बेहतर मिसाल है।
वाराणसी में कई हवेली और कोठी है जो आज भी अपनी शिल्पकला और वैभव के लिए जाना जाता है। इतिहास के अलग-अलग काल में इन हवेली और कोठी काे बनाया गया था। इनमें से कई हवेली और कोठी का संरक्षण नहीं होने से आज इनके सामने पहचान का संकट है। इन सभी का ठीक से मरम्मत कराकर संरक्षण की आवश्यकता है।