महाश्मशान पर यहां धधकती चिताओं के बीच रंगीन होती है रात, जानें क्या है वजह...
इस अनूठी परंपरा को निहारने और देर रात तक अपनी आंखों में संजोने दूर दराज से ही नहीं बल्कि विदेशों से भी लोग चैत्र नवरात्र में सप्तमी की रात को यहां बरबस ही खिंचे चले आते हैं।
वाराणसी [अभिषेक शर्मा]। भूतभावन भगवान शिव की नगरी काशी वैसे तो राग विराग की नगरी भी कही जाती है। मृत्यु यहां उत्सव है तो मृत्यु मोक्ष का यहां मार्ग भी माना जाता है। मान्यता है कि यहां मशाननाथ के रुप में स्वयं भगवान शिव विराजमान हैं और हर चिता को मोक्ष का मार्ग भी वह स्वयं दिखाते हैंं। यहां चिताओं की होली भी होती है तो चिताओं के बीच दीवाली की रौनक भी यहां एकाकार होती है। काशी में एक परंपरा ऐसी भी है जो यहां धधकती चिताओं के बीच गणिकाओं के नृत्य के बिना पूरी नहीं होती। काशी की इस अनूठी परंपरा को निहारने और देर रात तक अपनी आंखों में संजोने दूर दराज से ही नहीं बल्कि विदेशों से भी लोग चैत्र नवरात्र में सप्तमी की रात को यहां बरबस ही खिंचे चले आते हैं। सदियों से इस दिन काशी के ख्यात मणिकर्णिका घाट पर घुंघरू बांधकर नृत्य करने और काशी के रक्षक भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए धधकती चिताओं के बीच झूमकर नाचती गणिकाओं का दूर दराज से यहां प्रतिभा का दर्शन होता है।
अनोखा है यह उत्सव : यहां एक तरफ जलती चिताओं के शोले इस अनोखी रात में आसमान से एकाकार होते नजर आते हैं तो दूसरी ओर घुंघरू और तबले की जुगलबंदी के बीच पैरों के ताल पर रात परवान चढ़ती है तो परवाने भी यहां नोट लुटाने चले आते हैं। मौत का सन्नाटा भी इस घाट पर नृत्यांजलि की रौनक तले उत्सवी स्वरुप जब अख्तियार कर लेता है तो परंपराएं भी देर रात तक परवान चढ़ती हैं। धधकती चिताओं का मातम महाश्मशान को इस दौरान जहां विराग की उत्कंठा को तोड़ता है तो दूसरी ओर इस रात नगरवधुओं की घुंघरू की झंकार से रागों की नेमत रात भर कुछ इस तरह चिताओं के बीच उभरती है मानो जीवन और मृत्यु यहां आकर एकबारगी एकाकार हो गए हों। काशी का यह अनोखा उत्सव है राग विराग का जहां देर रात तक तबले की थाप और झंकृत होते की आवाज के बीच अपना सुध-बुध खोकर नाचती नगरवधुओं से महाश्मशान भी इस अनोखी रात के लिए महाश्मशान पर एक रात के लिए मानो जीवंत हो उठता है।
मोक्ष के कामना की नृत्यांजलि : पुरानी मान्यता है कि बाबा मशाननाथ को समर्पित इस घाट पर कभी चिताएं ठंडी ही नही हुईं। नगर वधुओं के नृत्य के बीच मंच के पीछे उठती आग की ऊंची लपटें इस परंपरा की हर साल एक नई इबारत गढ़ती हैं। जीवन के आखिरी मुकाम यानि मणिकर्णिका के इस पवित्र घाट पर रात भर नाचती गणिकाओं की नृत्यांजलि के माध्यम से यह कामना भी होती है कि मोक्ष के बाद उन्हें इससे मुक्ति भी मिले। आयोजन से जुडे लोग भी मानते हैं कि शिव को समर्पित गणिकाओं की यह भावपूर्ण नृत्यांजलि मोक्ष की कामना से भी युक्त होती है। दरअसल शिव की स्तुति में रात भर झूमकर नाचें गायें मगर इस रात की चांदनी के बाद वर्षभर का अंधियारा ही नसीब में आता है। यहां पर इन नगर वधुओं की यह वार्षिक प्रस्तुति स्वतः स्फूर्त परंपरा आधारित है जिसकी मान्यता अब काशी से अतिरिक्त वैश्विक भी होती जा रही है।
कुछ ऐसी है मान्यता : मान्यता है कि अकबर के नवरत्नों में से एक राजा मानसिंह ने प्राचीन नगरी काशी में भगवान शिव के मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था। इस मौके पर राजा मानसिंह एक सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन कराना चाह रहे थे लेकिन कोई भी कलाकार इस श्मशान में आने और अपनी कला के प्रदर्शन के लिए कतई तैयार नहीं हुआ। इसकी जानकारी काशी की तत्कालीन नगर वधुओं को हुई तो वे स्वयं ही श्मशान घाट पर होने वाले इस उत्सव में नृत्य करने को तैयार हो गईं। इस दिन से धीरे-धीरे यह उत्सवधर्मी काशी की ही एक परंपरा का हिस्सा बन गई। तब से आज तक चैत्र नवरात्रि की सातवीं निशा में हर साल यहां श्मशानघाट पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है।