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गाजीपुर जिले में छह मास तक रहा रवींद्रनाथ टैगोर का प्रवास, रविंद्रपुरी कालोनी का नाम उन्हीं के नाम पर

लेखनी के दम पर दुनिया में एक अलग मुकाम हासिल करने वाले राष्ट्रगान के रचयिता गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर का प्रवास गाजीपुर जनपद में छह माह से ऊपर रहा है। यहां रहकर मानसी की अधिकांश कविताएं लिखीं थीं नौका डूबी के कई अंश गाजीपुर में लिखे गए या उससे संबंधित हैं

By Abhishek sharmaEdited By: Published: Sun, 24 Jan 2021 09:10 AM (IST)Updated: Sun, 24 Jan 2021 09:10 AM (IST)
गाजीपुर जिले में छह मास तक रहा रवींद्रनाथ टैगोर का प्रवास, रविंद्रपुरी कालोनी का नाम उन्हीं के नाम पर
राष्ट्रगान के रचयिता गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर का प्रवास गाजीपुर जनपद में छह माह से ऊपर रहा है।

गाजीपुर, जेएनएन। अपनी लेखनी के दम पर दुनिया में एक अलग मुकाम हासिल करने वाले राष्ट्रगान के रचयिता गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर का प्रवास गाजीपुर जनपद में छह माह से ऊपर रहा है। यहां रहकर मानसी की अधिकांश कविताएं लिखीं थीं, नौका डूबी के कई अंश गाजीपुर में लिखे गए या उससे संबंधित हैं, यह बहुतों को नहीं पता। 'नौका डूबी' का एक तृतीयांश गाजीपुर पर ही केंद्रित करके लिखे थे। उनके द्वारा लिखा गया राष्ट्रगान 'जनगण मन...' 24 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान द्वारा अंगीकृत किया गया था।

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रविंद्रनाथ 1888 में 37 वर्ष की आयु में गाजीपुर जनपद आए थे। वह हाबड़ा से दिलदारनगर ट्रेन से आए। यहां से दूसरी गाड़ी बदलकर ताड़ीघाट स्टेशन और वहां से स्टीमर द्वारा गंगा पार करने के बाद इक्का गाड़ी से गोराबाजार पहुंचे थे। इतिहासकार उबैदुर्रहमान सिद्दिकी बताते हैं कि रवींद्र नाथ टैगोर गाजीपुर में छह मास रहे। वहां का एक छोटा सा इतिहास भी लिखा। वह गाजीपुर वे क्यों आए, आइए सुनते हैं, उन्हीं की जुबानी। रवींद्र नाथ टैगोर ने मानसी की सूचना में लिखा है.. बचपन से ही पश्चिमी हिंदुस्तान मेरे लिए रूमानी कल्पना का विषय था। यहीं विदेशियों के साथ इस देश का लगातार संपर्क और संघर्ष होता रहा है।

यहां ही सदियों से इतिहास की विराट पट भूमि पर बहुत से साम्राज्यों के उत्थान-पतन की और नए-नए ऐश्वर्यों के विकास-विलय अपने विचित्र रंगीन चित्रों की कतार बनते जा रहे हैं। बहुत दिनों से सोच रहा था कि इसी पश्चिमी हिंदुस्तान की किसी एक जगह कुछ दिन रहकर विराट, विक्षुब्ध अतीत का स्पर्श दिल में महसूस करूं। आखिर में एक बार सफर के लिए तैयार हुआ। इतनी जगहों के बावजूद गाजीपुर को ही क्यों चुना-इसके दो कारण हैं। सुन रखा था कि गाजीपुर में गुलाब के बगीचे हैं। मैंने मन ही मन जैसे गुलाब-बिलासी सिराज का चित्र बना लिया था। उसी का मोह मुझे बहुत जोरों से खींचता रहा। वहां जाकर देखा-व्यापारियों के गुलाब के बगीचे। वहां न तो बुलबुलों को बुलावा है? न कवियों को। खो गई वह छवि। दूसरी ओर, गाजीपुर के महिमा मंडित प्राचीन इतिहास के कोई बड़े निशान देखने को नहीं मिले। मेरी निगाहों में उसका चेहरा एक सफेद साड़ी पहनी विधवा सा लगा, वह भी किसी बड़े घर की नहीं। फिर भी गाजीपुर ही रह गया। इसका एक बड़ा कारण यह भी था कि मेरे दूर के रिश्तेदार गगनचंद्र राय यहीं अफीम विभाग में बड़ अफसर थे।

उनकी मदद से मेरे लिए यहां रहने का इंतजाम बड़ी आसानी से हो गया। एक बड़ा सा बंगला मिल गया, गंगा-तीर पर ही, ठीक गंगा तीर पर भी नहीं। करीब मिल भर का लंबा रेत पड़ गया है। उसमें जौ, चने और सरसों के खेत हैं। गंगा की धारा दूर से दिखती है। रस्सी से खींची जा रहीं नावें मंद गति से चलती हैं। घर से सटी काफी जमीन परती पड़ी है। बंगला देश की मिट्टी होती तो जंगल हो जाता। निस्तब्ध दोपहर में कुएं से कलकल शब्द करती हुई पुर चलती है। चंपा की घनी पत्तियों में से दोपहर की धूप जली हवाओं से होती हुई कोयल कूंक आती है। पश्चिमी कोने पर एक बहुत बड़ा और पुराना नीम का-सा पेड़ है। उसकी पसरी हुई घनी छाया में बैठने की जगह है। सफेद धूलों से भरा रास्ता घर के बगल से चला गया है? दूर पर खपरैल के घरों वाला मोहल्ला है। हर 24 जनवरी उन्हें गाजीपुर में याद किया जाता है, क्योंकि इसी दिन भारतीय संविधान द्वारा उनके राष्ट्रगान 'जनगण मन...' अंगीकृत किया गया था। 


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