सुबह-ए-बनारस का ग्रीष्मकालीन ऑन लाइन शिविर आरंभ, 590 प्रतिभागियों ने कराया पंजीकरण
सुबह -ए- बनारस ग्रीष्मकालीन प्रशिक्षण शिविर के छठे संस्करण का ऑन लाइन उद्घाटन सोमवार को फेसबुक पेज पर किया गया।
वाराणसी, जेएनएन। सुबह -ए- बनारस ग्रीष्मकालीन प्रशिक्षण शिविर के छठे संस्करण का ऑन लाइन उद्घाटन सोमवार को फेसबुक पेज पर किया गया। विगत 5 वर्षों से अस्सी घाट पर चलने वाले इस शिविर को इस वर्ष लॉकडाउन के कारण इस प्रकार चलाया जा रहा है। शिविर में देश विदेश से 590 प्रतिभागियों ने फ्री पंजीकरण करवाया है।
परंपरा के अनुसार शिविर की समन्वयक श्रीमती मंजू मिश्र ने दीप प्रज्ज्वलित किया। डॉ मंजरी पांडेय ने गंगा दशहरा पर गंगा स्तुति का वाचन किया। स्वागत सुबह-ए-बनारस के सचिव डॉ रत्नेश वर्मा ने किया। मुख्य अतिथि पदमश्री पंडित राजेश्वर आचार्य ने सभी सदस्यों को इस अभिन्न प्रयोग की सफलता का श्रेय दिया।शिविर के प्रशिक्षाको ने परिचय देते हुए विधाओं से परिचित करवाया। डॉ मंजरी पांडेय ने संस्कृत संभाषण, वनिता मिड्ढा ने आर्ट एंड क्राफ्ट, अखिलेश रावत एवं अजित श्रीवास्तव ने आत्म रक्षा, डॉ शिवानी आचार्य ने गायन, डॉ ममता नंदा ने नृत्य, उमेश भाटिया ने नाट्य, एकता गुप्ता ने क्रिएटिव टेक्सटाइल वीविंग के बारे में जानकारी दी।
ऑन लाइन कार्यक्रम में सुनील शुक्ला, डॉ वीरेंद्र सिंह, डॉ प्रीतेश आचार्य, मनीष खत्री ने विचार रखे। उपाध्यक्ष प्रमोद कुमार मिश्र ने धन्यवाद ज्ञापन दिया। संचालन एवं संयोजन अंकिता खत्री ने किया। तकनीकी सहयोग अंश खत्री का था। दस दिवसीय शिविर प्रतिदिन शाम 5 बजे से सुबह-ए-बनारस समर वर्कशॉप के पेज से संचालित होगा।
यज्ञ-हवन, आरती, संगीत और योग का रंग पिरोया
बनारस की सुबह तो अपने आप में सनातन आयोजन है लेकिन सुबह -ए- बनारस संगठित रूप दे दिया। इसमें यज्ञ-हवन, आरती, संगीत और योग का रंग पिरोया। इसके लिए हर दिन देश विदेश के अलग-अलग कलाकारों को मंच दिया। इसका केवल बनारसियों ने ही नहीं पर्यटन और तीर्थाटन के लिए आए परदेशियों-विदेशियों व जिज्ञासुओं ने भी आनंद लिया। बनारस की पहचान से जुड़ी गंगा और उसके घाटों पर इठलाती सुबह के ठाट इसे एक अनूठे प्राकृतिक हाट का स्वरूप देते हैं। गंगधार पर झिलमिल उतरती सूरज की किरणों के सात रंग विश्व की इस प्राचीन नगरी की संस्कृति-संस्कार के रंग बनते हैं। जिज्ञासा और ज्ञान पिपासा जनते हैं और सात समंदर पार से पर्यटकों, श्रद्धालुओं और ज्ञान पिपासुओं के खींचे चले आने का कारण बनते हैं। इस परंपरा का ही संगठित-संयोजित स्वरूप यानी सुर साज से पगा