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नवरात्र और दीवाली तक ही सीमित है अब मिट्टी के बर्तन, प्लास्टिक पर लगा प्रतिबंध तो जगी कुल्हड़ों से आस

कभी हर कुम्हार परिवार के लिए उसका क्षेत्र या गांव के अन्य वर्ग के परिवारों की संख्या निर्धारित हुआ करती थी। इधर बीच में प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगा तो प्लास्टिक की गिलासों की जगह लोगों ने चाय की दुकान पर कुल्हड़ की मांग शुरू कर दी।

By Saurabh ChakravartyEdited By: Published: Fri, 23 Oct 2020 06:32 AM (IST)Updated: Fri, 23 Oct 2020 10:00 AM (IST)
नवरात्र और दीवाली तक ही सीमित है अब मिट्टी के बर्तन, प्लास्टिक पर लगा प्रतिबंध तो जगी कुल्हड़ों से आस
चाक पर मिट्टी के बरतन तैयार करता कुम्हार।

मऊ [शैलेश अस्थाना]। अब न मिट्टी के खिलौनों की मांग है न भोज एवं दावतों में मिट्टी के कुल्हड़ का प्रचलन। दीपावली पर मिट्टी के दीए भी बस नाम मात्र को जलते हैं। कच्चेे मकानों पर नक्काशीदार नरिया और थपुआ का स्थान आयरन व स्टील की चादरों ने ले लिया है। ऐसे में कुम्हारों की रोजी रोटी का सहारा नहीं रहा उनका चाक, जिसे कबीर के दर्शन में कभी खास मुकाम हासिल था। आधुनिकता ने इस वर्ग की कला को मिट्टी में मिला दिया है। इस कला के माहिर अब बुजुर्ग ही बस चाक और आंवा से जुड़े है। युवा वर्ग ने रोजी-रोटी के लिए अन्य विकल्प अपना लिया है। ऐसे में यह कला अब विलुप्त होने की कगार पर आ पहुंची है। 

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कभी हर कुम्हार परिवार के लिए उसका क्षेत्र या गांव के अन्य वर्ग के परिवारों की संख्या निर्धारित हुआ करती थी। इन परिवारों को मिट्टी से बने बर्तनों की जरूरत उनसे जुड़ा कुम्हार परिवार ही करता था। शादी विवाह या दावत के अन्य प्रयोजनों की सर्वप्रथम सूचना गांव के कुम्हार को दी जाती थी। दिन-रात एक कर कुल्हड़ बनता था। मेलोंं में मिट्टी के खिलौनों की अच्छी बिक्री होती थी। कुम्हार को भी दीवाली का बेसब्री से इंतजार रहता था। गांव में खपरैल मकान बनाने हेतु नरिया एवं थपुआ की भी मांग बराबर बनी रहती थी। आज आधुनिकता ने मिट्टी के प्रत्येक बर्तन की मांग को समाप्त कर दिया है। अब तो बस शारदीय एवं चैत्र नवरात्रि पर ही कुछ घड़े एवं अन्य बर्तन बिकते हैं। इधर बीच में प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगा तो प्लास्टिक की गिलासों की जगह लोगों ने चाय की दुकान पर कुल्हड़ की मांग शुरू कर दी, इससे कुछ आस इस धंधे से जुड़े कुंभकार समाज लोगों में जगी, मगर वह अभी पर्याप्त नहीं।  चाक के सहारे परिवार का गुजारा नामुमकिन है। यही कारण है कि इस पुश्तैनी पेशे को युवा छोड़ रहा है। माटी कला से जुड़े हरेंद्र प्रजापति बताते हैं कि सरकार कुम्हारी कला को संरक्षण देने के लिए ही माटी कला केंद्र की स्थापना की है। इसके लिए वह सारे उपाय किए जा रहे हैं जिससे यह व्यवसाय, कला एवं परंपरा जीवित रहे।


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