नाम है मेरा नजीर और मेरी नगरी बेनजीर..
कुमार अजय वाराणसी गंगा के रूपहले चांदहार-से चमकते-दमकते शहर बनारस के हुश्न की कि
कुमार अजय, वाराणसी : गंगा के रूपहले चांदहार-से चमकते-दमकते शहर बनारस के हुश्न की कशिश ही कुछ ऐसी है कि जिसने एक बार देखा बस फिदा हो गया! यह बात अलग है कि कुछ को यहां बसाहट की खुशकिस्मती हासिल हुई। तो कोई इसकी रुहानी व दुनियावी खूबसूरती को अपनी यादों में हमेशा के लिए सहेज कर एक खलिश के साथ यहां से विदा हो गया। आने-जाने के इस सिलसिले को गर सुखनबरी (लेखन) की हद में समेट कर देखें तो दाराशिकोह, रजी साहब, मिर्जा गालिब व अलबरूनी तक के नाम याद आते हैं जिन्होंने बनारस की पुरनूरी को हरफों के मोतियों से सजाया। बनारस को जन्नत का खिताब देकर इसकी मशहूरी को सारी दुनिया तक पहुंचाया। अब बात उस खुशनसीब शायर की, जिसे बनारस में रहने का मौका मिला, गंगा की गोद की पनाह मिली व अल्लाह-त-आला की मेहर के साथ काशी नगरी समेत पूरी कायनात के शंहशाह भगवान शिव की सरपरस्ती भी हासिल हुई। ऐसे में कबीरी रवायत की नुमाइंदगी करते हुए नजीर साहब कब यहां के किरदार के साथ घुल-मिलकर खुद बनारस हो गए, पता ही नहीं चला। जाहिर है ऐसे में उनका इस्मेशरीफ (नाम व परिचय) सिर्फ उनका नहीं रहा। वह ताउम्र बनारस के साथ ही बावस्ता रहा। तभी तो वह पूरे गुरूर के साथ लिखते हैं- 'मैं बनारस का निवासी, काशी नगरी का फकीरहिद का शायर हूं, शिव की राजधानी का सफीर लेके अपनी गोद में गंगा ने पाला है मुझे.. नाम है मेरा नजीर और मेरी नगरी बे-नजीर' इन सतरों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि नजीर साहब बनारस को किस कदर टूटकर चाहते थे। गंगा की लहरों की कोमल थपकियों के दुलार की गहराई को कितनी सिद्दत के साथ थाहते थे। तभी तो वे अपने अरमानों को आखिरी मुकाम देते हुए लिखते हैं- 'सोएंगे एक दिन तेरी गोद में मरके. हम दम भी जो तोड़ेंगे तेरा दम भरके. हमने नमाजें भी पढ़ीं हैं अक्सर गंगा तेरे पानी के वजू कर-करके'
सही मायनों में काशिकेय नजीर साहब के सुफियाना मंसूबों में मजहब कभी आड़े नहीं आया। पांचों वक्त के नमाज की पाबंदगी तो काशी के सरपरस्त बाबा विश्वनाथ की सलाम-बंदगी में कभी कोई रस्म-रिवाज रोड़ा नहीं बन सका। मिर्जा गालिब की नज्म को बकौल नाजिल सामने रखते हुए जब नजीर लिखते हैं- 'मिला है स्वर्ग से डांडा यहां का.. जिसे कहते हैं मुक्ति वह यहां है.. सुनाता हूं तुम्हें गालिब का मिसरा.. खयाल उनका है बंदा तरजुमा है.. कहा है किस अकीदत से असद ने.. बनारस काबा-ए-हिदोस्तां है ' शहर बनारस की गंगो जमुनी तहजीब के जिदा मरकज के तौर पर याद किए जानेवाले नजीर साहब की यौमे पैदाइश पर उन्हें खिराजे अकीदत बस उन्हीं की इन चार लाइनों से, जिसमें बनारस और नजीर बनारसी का वजूद एक दूसरे में समा जाता है, मिल्लत व यकजहती का पैगाम बन जाता है- 'रात को तो घाट पर मिलकर लगे गांजे का दम.. सुबह को दोनों अलग मंदिर में वह मस्जिद में हम..'