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धान की 100 से अधिक पौष्टिक और स्वादिष्ट पुरानी प्रजातियां विलुप्त, जलवायु परिवर्तन से लड़ने में सक्षम

अंतरराष्ट्रीय चावल अनुसंधान केंद्र (आइआरआरआइ) के दक्षिण एशिया क्षेत्रीय केंद्र के निदेशक डा. सुधांशु सिंह बताते हैं कि पुरानी प्रजातियों के धान अपनी तेज सुगंध व स्वाद के साथ ही भरपूर पोषण से युक्त हुआ करते थे। इनमें जिंक व आयरन भरपूर मात्रा में होता था।

By Saurabh ChakravartyEdited By: Published: Mon, 27 Dec 2021 05:58 PM (IST)Updated: Mon, 27 Dec 2021 06:11 PM (IST)
धान की 100 से अधिक पौष्टिक और स्वादिष्ट पुरानी प्रजातियां विलुप्त, जलवायु परिवर्तन से लड़ने में सक्षम
अंतरराष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान, वाराणसी स्थित दक्षिण एशिया क्षेत्र केन्द्र के प्रक्षेत्र में धान की प्रजातियों पर चल रहा शोध।

वाराणसी [ शैलेश अस्थाना ]। यदि केवल उत्तर भारत की बात करें तो धान की 100 से अधिक ज्ञात प्रजातियां हैं जो अब विलुप्त हो चुकी हैं या विलुप्ति की कगार पर हैं। पोषण, स्वाद व सुगंध में निराली ये प्रजातियां स्वाभाविक रूप से जलवायु परिवर्तन के संकट से लडऩे में सक्षम थीं। उनकी उपज भले कम थी किंतु सूखा व बाढ़ की स्थिति में भी तैयार होने वाली प्रजातियों की जानकारी हमारे पूर्वजों को थी। यही नहीं सबसे कम महज 60 दिन में तैयार होने वाली साठा या साठी व अपने निराले सुगंध व पोषण के लिए प्रसिद्ध काला नमक प्रजातियां आज भी लोगों की जुबान पर हैं।

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सुगंध व स्वाद से भरपूर

अंतरराष्ट्रीय चावल अनुसंधान केंद्र (आइआरआरआइ) के दक्षिण एशिया क्षेत्रीय केंद्र के निदेशक डा. सुधांशु सिंह बताते हैं कि पुरानी प्रजातियों के धान अपनी तेज सुगंध व स्वाद के साथ ही भरपूर पोषण से युक्त हुआ करते थे। इनमें जिंक व आयरन भरपूर मात्रा में होता था। चूंकि ये प्रजातियां स्वयमेव हजारों वर्षों में खुद की प्रतिरोधक शक्ति विकसित करते हुए, जलवायु परिवर्तन के आघातों से लड़ते हुए तैयार हुई थीं, इसलिए उनमें बाढ़ और सूखा से लडऩे की क्षमता थी। कमी सिर्फ यही कि इनकी उपज जहां तीन-चार कुंतल प्रति एकड़ थी, वहीं नई प्रजातियां छह-सात कुंतल प्रति एकड़ उपज देकर बढ़ती आबादी का पेट भरने में सक्षम हैं।

लोक में रची-बसीं थीं ये प्रजातियां

आइआरआरआइ के प्रजनक विज्ञानी उमा महेश्वर बताते हैं कि बड़ी मंसूरिया, कतिका, घिलौनवा, मोदक, बंगलवा व सोनाचूर आदि को उपजाने में खाद-पानी ज्यादा नहीं लगता था। सेलहा व साठी जैसी किस्में कम बारिश वाले क्षेत्र में किसान लगाते थे। ये केवल साठ दिनों में तैयार हो जाती थीं। वहीं, बेसारिया का इस्तेमाल किसान अधिक बारिश की स्थिति में करते थे।

मूल प्रजाति ढूंढना कठिन

उमा महेश्वर बताते हैं कि ये प्रजातियां हजारों वर्ष पुरानी थीं। हजारों किसानों ने इन्हें उगाया, लगाया। समय के साथ इनमें इतना परिवर्तन आ गया है कि मूल प्रजाति ढूंढना मुश्किल है। काला नमक की 20 प्रजातियां केंद्र में एकत्र की गई हैं। उनकी गुणवत्ता जांचने पर पता चला कि सिर्फ तीन में ही अच्छी सुगंध है, तीन अन्य में मध्यम है, शेष सुगंधहीन हैं।

गुणवत्ता बनाए रखते हुए होगा मूल प्रजातियों का विकास

हजारों वर्ष प्राचीन प्रजातियों को आज के परिवेश के अनुकूल बनाने का काम आइआरआरआइ में किया जा रहा है। विज्ञानी फसल की लंबाई कम कर उपज बढ़ाने के लिए जेनेटिक परिवर्तन पर काम कर रहे रहे हैं ताकि उनके स्वाद, सुगंंध व पौष्टिकता के गुणों को बरकरार रखते हुए अच्छी उपज भी ली जा सके। यदि उन्हें मूल रूप में उगाया जाएगा तो उन लंबी प्रजातियों के गिरने का खतरा बना रहेगा, साथ ही उनकी उपज कम होगी। हां, उनके गुणों के आधार पर उनकी कीमत अच्छी मिल सकती है।

लुप्तप्राय प्रजातियां

पूर्वी उत्तर प्रदेश: बस्ती का काला नमक, काला जीरा, जूही बंगाल, कनक जीरा, धनिया और मोती बदाम, काला भात (सिद्धार्थनगर), नामचुनिया, दुबराज, बादशाह पसंद, शक्कर चीनी, विष्णु पराग (बहराइच), जिरिंग सांभा (सुल्तानपुर, चंदौली), लालमनी (प्रतापगढ़), सोना चूर्ण (कोरांव, प्रयागराज), तुलसी मंजरी, जीरा-32, आदमचीनी, गोविंद भोग, विष्णु भोग, मोहन भोग, बादशाह भोग, साठी, (वाराणसी, गाजीपुर, बलिया, आजमगढ़, जौनपुर, मीरजापुर आदि) बिहार (बक्सर) : कतरनी, मिर्चा, नगपुरिया, कनकजीर, सीता सुंदरी, कलमदान आदि।छत्तीसगढ़ : जवा फूल, चिन्नावर आदि।

बेहतर गुणवत्ता वाली थीं गेहूं की पुरानी प्रजातियां

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कृषि विज्ञानी प्रो. वीके मिश्र बताते हैं कि 1965-68 तक भारत में के-65 व के-68 प्रजाति के गेहूं की खेती होती थी। यह गेहूं गुणवत्ता में आज की प्रजातियों से काफी बेहतर था, इसमें ग्लूटेन प्रोटीन की मात्रा ज्यादा होती थी, इसका आटा गूंथने में काफी सहज था, इसकी रोटी काफी मुलायम और स्वादिष्ट हुआ करती थी। आज भी कुछ किसान इसे बोते हैं मगर इसका आटा बड़ी दुकानों में काफी महंगा मिलता है। जनसंख्या के बढ़ते दबाव के चलते इन प्रजातियों को हटाना पड़ा। इसकी उपज महज 35 कुंतल प्रति हेक्टेयर थी, जबकि आज 60 कुंतल प्रति हेक्टेयर की उपज देने वाली प्रजातियां हैं, आज के परिवेश में उनकी वजह से ही हम खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर हो सके हैं। बेशक ये प्रजातियां अधिक उपज दे रही हैं मगर गुणवत्ता में पुरानी प्रजातियों से कम हैं। अब जीन अभियंत्रण से ही उन प्रजातियों को आज के प


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