वाराणसीः बिटिया अभिशाप नहीं, ईश्वर की दी सौगात
डॉ. शिप्राधर का मानना है कि सनातन काल से बेटियों को लक्ष्मी का दर्जा दिया गया। देश-विज्ञान तकनीक की राह पर भी आगे बढ़ रहा है।
सदियों से ये बात समझाई जा रही है, लेकिन अभी भी बिटिया के जन्म पर 'सासु मां', 'ननद रानी' या 'पतिदेव' के चेहरे पर उभर आने वाली आड़ी-तिरछी रेखाएं आज के दौर में भी सोच की दशा-दिशा का आभास कराती हैं। एक दूसरे को दिलासा देती अथाह शब्द-शृंखला कुछ ऐसा अहसास कराती है मानो बेटी ने जन्म न लिया अभिशाप हो गया।
नित ऐसे ही वाकये से दो-चार और ऐसी दृश्यावली से बेजार डॉ. शिप्राधर ने इस सोच को बदलने का बीड़ा उठाया और अपने मैटर्निटी होम में बच्ची के जन्म पर पूरा शुल्क उपहार में छोड़ देने का संकल्प लिया।
कई बार ऐसे भी मौके आए आज जब लगातार बेटियों के जन्म से बड़े स्टेबलिशमेंट के संचालन का संकट भी खड़ा हो गया। इसमें कुछ स्वयं सेवी संस्थाओं ने मदद का प्रस्ताव दिया, लेकिन संकल्पों में बंधी चिकित्सक ने इसे विनम्रता से ठुकराते हुए खुद से किया वादा पूरा किया। इसमें उनकी मदद की उनके चिकित्सक पति डॉ. मनोज श्रीवास्तव ने।
फिलहाल, 25 जुलाई 2014 से शुरू यह अभियान जारी है और इसके तहत 235 बेटियों को मान दिला चुकी हैं। खास यह कि बेटी सम्मान की खातिर डॉ. शिप्रा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रेरणा से केंद्र सरकार द्वारा 'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ' और सुकन्या समृद्धि योजना शुरू किए जाने पर डॉ. शिप्रा और डॉ. मनोज ने इसे भी अपने अभियान में शामिल किया।
इसके तहत अपने मैटर्निटी होम में पैदा होने वाली बेटियों को वह बीमा दिलाती हैं और इसकी पहली किस्त भी खुद अपनी जेब से जमा कराती हैं। अपने स्टाफ में बेटियां होने पर उन्होंने इसके लिए किश्त के लिए एक हजार रुपये वेतन में बढ़ा दिए। इसके लिए उन्हें भारत विकास परिषद के राष्ट्रीय सम्मेलन में सम्मानित किया गया।
अनाज बैंक... ताकि न हो कुपोषण
बच्चोंन और परिवारों को कुपोषण से बचाने के लिए डॉ. शिप्राधर अनाज बैंक भी संचालित करती हैं। फिलवक्तः वे अति निर्धन विधवा और असहाय 38 परिवारों को हर माह की पहली तारीख को अनाज उपलब्धत कराती हैं। इसमें प्रत्येयक को दस किग्रा गेहूं और पांच किग्रा चावल दिया जाता है। होली-दीपावली पर इन परिवारों को वस्त्रत, उपहार और मिठाई भी दिया जाता है। उनकी इस मुहिम में शहर के अन्यप चिकित्सवक भी जुड़ने लगे हैं।
डॉ. शिप्राधर का मानना है कि सनातन काल से बेटियों को लक्ष्मी का दर्जा दिया गया। देश-विज्ञान तकनीक की राह पर भी आगे बढ़ रहा है। इसके बाद भी कन्या भ्रूणहत्या जैसे कुकृत्य एक सभ्य समाज के लिए अभिशाप हैं। वैसे भी जहां बेटी के जन्म पर खुशी नहीं, वह पैसा किस काम का।
अगर बेटियों के प्रति समाज की सोच बदल सकें तो वे खुद को सफल समझें। डॉ. शिप्रा कहती हैं कि यदि उनके पैसा न लेने से लोगों में 'बेटी नहीं है बोझ, आओ बदलें सोच' का असर होता है तो बेटियों पर ये पैसा कुर्बान है।