ट्रामा केसों से निपटने के लिए वाराणसी को 'ईआरटी' की जरूरत
बीएचयू अस्पताल और प्रांतीय चिकित्सा सेवा से विशेषज्ञ डॉक्टरों, पैरामेडिकल और एक्जिलरी स्टॉफ को कमांडो की तरह ट्रेनिंग देकर इमरजेंसी रिस्पांस का जिम्मा सौंपा जाना चाहिए।
बनारस व्यस्ततम शहर तो है ही, यहां जीटी रोड समेत चार राजमार्ग भी । इस कारण यहां रोग-बीमारियों से कहीं अधिक आपात चिकित्सा सेवा की जरूरत ट्रामा केसों (हादसों से संबधित मामलों) में है। ऐसे में सिर्फ भवन बना देने, कुछ मशीनें लगा लेने और ईएमओ और कॉल डॉक्टर की तैनाती से पूरा नहीं किया जा सकता।
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इसके लिए कमांडो की तरह तत्पर ईआरटी यानी इमरजेंसी रिस्पांस टीम के गठन की जरूरत है। इसकी जरूरत हाल ही में चौकाघाट-लहरतारा ओवरब्रिज के बीम गिरने के दौरान महसूस की गई। दरअसल, दुर्घटना की स्थिति घंटों के बजाय मिनटों की इमरजेंसी रिस्पांस मांगती है।
ऐसे में बीएचयू अस्पताल और प्रांतीय चिकित्सा सेवा से कुछ विशेषज्ञ डॉक्टरों, पैरामेडिकल और एक्जिलरी स्टॉफ को कमांडो की तरह ट्रेनिंग देकर सिर्फ और सिर्फ इमरजेंसी रिस्पांस का जिम्मा सौंपा जाना चाहिए। इसके बाद ही रिस्पांस टाइम मापना ईमानदारी की बात होगी।
फिलहाल यह एक से दो घंटे तक का है, जो बेहद ही खतरनाक है। अन्य आपात स्थितियों में भी मरीज को डॉक्टर के लिए इंतजार तो अलग अलग स्थानों पर एक्सरे, पैथोलॉजी और सिटी स्कैन के लिए बेजार होना पड़ता है। सामान्य परिस्थितियों की बात करें तो आबादी घनत्व और चिकित्सकों की उपलब्धता में गहरी खाई है। इसका जब बनारस के परिप्रेक्ष्य में आकलन करते हैं तो यह सिर्फ एक जिले की आबादी की बात न हो कर पूर्वांचल-पश्चिमी बिहार और मध्यप्रदेश के जिलों तक की बात हो जाती है। इसके आधार पर अंतर की खाई कई गुना और गहरी हो जाती है।
गौर करने की बात यह कि उपलब्धता से भी कहीं अधिक मसला क्वालिटी का है। दरअसल, ज्यादातर झोलाछाप या आयुष के डाक्टर हैं। इससे क्वालिटी भयानक रुप से प्रभावित हो रही है। स्पेशिलिटी में तो कुछ शाखाओं में ठीक ठाक संख्या है तो न्यूरो, यूरो, नेफ्रो, इंडोक्राइन, स्किन साइकेट्री समेत कई विधाओं में सुपर स्पेशियलिटी है ही नहीं। ऐसे में सिर्फ उपलब्धता का मतलब नहीं रह जाता।
वास्तव में 24 घंटे सात दिन सेवा के लिए जितने डॉक्टरों की जरूरत है, उसमें से महज एक तिहाई ही उपलब्ध हैं। इनमें भी ज्यादातर अधिकतम समय वीआईपी की तीमारदारी के साथ ही मेला-ठेला, खेल-भर्ती, पोस्टमार्टम, कोर्ट समेत वीआईपी ड्यूटी में लगे होते हैं। ऐसे में जनता को उनकी भी सेवाएं पूरी तरह प्राप्त नहीं हो पाती हैं। मेडिकल स्टॉफ की स्थिति तो और भी हास्यास्पद है। इसमें बड़ा मसला गुणवत्ता का है।
पिछली सरकारों में कुकुरमुत्ते की तरह पैरामेडिकल और नर्सिंग कालेजों के खुले हाथ से लाइसेंस बांटे गए। उनमें न तो योग्य शिक्षक हैं और न ही कैंपस या चिकित्सालय जिनमें उन्हें समुचित प्रशिक्षण दिया जा सके। कालेजों के खुलने से अब पैरामेडिकल की मात्रा जरूर बढ़ी है, लेकिन गुणवत्ता न होने से यह प्राइवेट में काम करने लायक नहीं हैं। ऐसे में सर्टिफिकेट लेकर ऐसे ही पड़े हुए हैं।
नर्सिंग स्टाफ, फार्मासिस्ट के साथ ही एक्सरे, लैब, अल्ट्रा साउंड, ईसीजी समेत टेक्नीशियन की सभी भर्तियां संविदा पर किए जाने से भी सब कुछ ठेका कंपनियों पर निर्भर है, जिनकी कोई जवाबदेही नहीं होती।
हालांकि पूर्वांचल के जिलों में आमजन की भावनाएं उपलब्ध चिकित्सा सेवा का कायदे से उपयोग के बजाय हनक दिखाने पर अधिक होता है। ऐसे में एक मरीज को दिखाने के लिए पूरा छह सात का समूह साथ में होता है। कतार तोड़ने को वे अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ते हैं।
ऐसा माहौल दोनों तरफ प्रेशर की स्थिति बनाता है और डॉक्टरों और पैरामेडिकल का व्यवहार बदल देता है। वैसे भी डॉक्टरों की कमी से रिस्पांस टाइम लंबा हो जाता है, क्योंकि इमरजेंसी में मरीज के परिजन को समझाया नहीं जा सकता कि उसके बाद आने वाला मरीज उसके परिजन से कहीं अधिक गंभीर है और उसे देखना पहले जरूरी है। ऐसे में इमरजेंसी मेडिसिन के मूल सिद्धांत तार-तार हो जाते हैं। ऐसे में सबसे पहले सिस्टम बनाने की जरूरत है।
- डॉ. अरविंद सिंह
(इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के अध्यक्ष हैं )