प्रो. राजाराम शास्त्री की वह प्रेरणा जो जिंदगी की राह मोड़ गई, सादगी जो छाप छोड़ गई
सब कुछ त्यागकर फकीरी अपना लेने का हौसला यही वह मंत्र था जिसने मुझ जैसे कई युवाओं को सबकुछ छोड़कर समाजसेवा के क्षेत्र में कुछकर दिकाने व बगैर किसी श्रेयस के सेवा भाव पर ही अपना जीवन समर्पित कर देने का हौसला दिया।
वाराणसी, जेएनएन। समाज सेवा महत्वाकांक्षाओं की सीढ़ी नहीं एक तपस्या है। इस तप की सिद्धी के लिए कबीरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ जैसा जज्बा होना चाहिए और चाहिए सब कुछ त्यागकर फकीरी अपना लेने का हौसला। यही वह मंत्र था जिसने मुझ जैसे कई युवाओं को सबकुछ छोड़कर समाजसेवा के क्षेत्र में कुछकर दिखाने व बगैर किसी श्रेयस के सेवा भाव पर ही अपना जीवन समर्पित कर देने का हौसला दिया।
इस मंत्र के प्रणेता थे काशी विद्यापीठ के पूर्व कुलपति तथा वाराणसी के सांसद रहे प्रो. राजाराम शास्त्री जिनकी दिनचर्या का एक-एक पल अध्ययन, अध्यापन व स्वाध्याय के अलावा जनसेवा को समर्पित था। विधि की ओर से प्राप्त दिन-रात के 24 घंटों का एक-एक क्षण किस तरह समाज हित में काम आए इसकी मिसाल थे समाजशास्त्र के अध्येता प्रो. राजाराम शास्त्री। उनका संपूर्ण जीवन महात्मा गांधी के सिद्धांतों से प्रेरित था। उन्होंने गांधीवाद को न सिर्फ विचारों में अपितु दैनिक जीवन के आचार व्यवहारों में बड़ी सिद्दत से उतारा था।
बड़े-बड़े पदों की जिम्मेदारियों का निष्ठापूर्वक निर्वहन करने के साथ ही उन्होंने समाजसेवा की चुनौती को भी संकल्प भाव से स्वीकारा था। फिर चाहे वह दायित्व रहा हो काशी विद्यापीठ जैसे संस्थान की साज संभाव का या फिर एक सांसद के रूप में चिंतन अपने क्षेत्र के बेहतर हाल अहवाल का। हर मोर्चे पर वह अद्भूत ऊर्जा के साथ अड़े रहे। दिन हो रात जब भी काशीवासियों को उनकी जरूरत महसूस हुई वे जनता के कंधा से कंधा जोड़कर मजबूती के साथ खड़े रहे। वे अक्सर कहा करते थे समाजसेवा के क्षेत्र में धैर्य ही सबसे बड़ी जरूरत है।
हमारे पीछे कौन खड़ा होगा। मूल प्रश्न यह नहीं है। यक्ष प्रश्न यह है कि कोई साथ आए या न आए आप अपने संकल्प पर क्या इतने अडिग है कि एकला चलो का सिद्धांत अपना सकते हैं। कतार में अकेले खड़े हों तब भी क्या पूरी ऊर्जा के साथ अदृश्य से पंजा लड़ा सकते हैं। उनके इस जज्बे के कई जीवंत उदाहरण भी हैं। मानव एकता परिषद के तत्वावधान में उस साल हम लोगों ने स्व. पीएम लालबहादुर शास्त्री के जन्मदिवस पर पराड़कर भवन में एक परिचर्चा का आयोजन किया। हमारे सिर्फ एक निवेदन पर उन्होंने कार्यक्रम में उपस्थिति की स्वीकृति दे दी।
उनका हाथ पकड़कर जब भवन की सीढियां चढ़ रहे थे शास्त्री जी को आभाष हो गया कि अपेक्षा के मुकाबले अतिथियों की भीड़ कम थी। वे हमारे मन की निराशा को फौरन भांप गए। कंधा थपथपाकर हौसला बढ़ाया। कहा भीड़ कोई मायने नहीं रखती। मायने रखता है आपका संकल्प इक्कठ्ठा पचास लोगों में से यदि दो भी आप ध्येय से अनुप्राणित हुए तो समझिए आपका मंतव्य सध गया। मैंने जीवन भर के लिए उनकी यह सीख गांठ बांध ली। आज भी उनका यह एक वाक्य हमारे लिए गीता के वचन की तरह वंदनीय है।