'भारत माता के वीर पुत्र-बिरसा मुंडा' में दर्ज है एक संन्यासी और योद्धा की अनोखी आजादी की संघर्ष गाथा
19वीं शताब्दी में भारत के मध्य भाग में आदिवासी अत्यंत बदहाली और अंधकार का जीवन जी रहे थे जो अब झारखंड राज्य कहलाता है। इस पुस्तक में वहीं से उठे एक नायक की कथा है जो एक संन्यासी भी था और योद्धा भी।
नई दिल्ली, अजय कुमार राय। स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में हमें उन अमर नायकों को याद और नमन करने का अवसर मिल रहा है, जिन्हें इतिहास में प्रमुखता से जगह नहीं दी गई थी। ऐसे ही नायक थे भगवान बिरसा मुंडा अर्थात धरती बाबा, जो एक संन्यासी होने के साथ-साथ एक योद्धा भी थे। इतिहास में इन दोनों गुणों से संपन्न विरले ही होंगे। एक संन्यासी के रूप में उन्होंने अपने बिरसाइत दर्शन के जरिये ईसाई मिशनरियों की सेवा की आड़ में मतपरिवर्तन की कुटिल चाल से आदिवासी समाज को बचाया। वहीं एक योद्धा के रूप से उनकी धरती छीनने की कोशिश कर रहे ब्रिटिश शासन तंत्र की उन्होंने जड़ें हिला दीं। बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर, 1875 को रांची के दक्षिण-पूर्व में करीब 60 किलोमीटर उलिहातू गांव के एक आदिवासी परिवार में हुआ था। जबकि नौ जून, 1900 को मात्र 25 साल की उम्र में रांची जेल में उनकी रहस्यमयी परिस्थितियों में मौत हो गई थी। उस कालखंड की पूरी कहानी तुहिन ए. सिन्हा एवं अंकित वर्मा ने अपनी पुस्तक 'भारत माता का वीर पुत्र- बिरसा मुंडाÓ में उपन्यास की शैली में बताई है।
लेखक द्वय ने इस पुस्तक को तीन भागों में लिखा है। पहले भाग में बिरसा मुंडा के जन्म, मिशनरियों के चंगुल में फंसकर मजबूरन ईसाई बनने, उनके स्कूलों में शिक्षा हासिल करने और फिर उससे मोहभंग होने की कहानी है। दूसरे भाग में वह किस तरह भारतीय संस्कृति के करीब आए, रामायण, महाभारत, गीता, वेद और उपनिषद आदि धर्मग्रंथों के प्रकांड विद्वान बने। पुस्तक में बिरसा मुंडा से भगवान बिरसा मुंडा बनने तक की कहानी है। तीसरे खंड में यह बताया गया है कि एक संन्यासी बिरसा मुंडा आखिर किन परिस्थितियों में एक योद्धा का रूप धारण करने को विवश हुए। यह पुस्तक उस समय आदिवासी समाज के रहन-सहन और उनकी समस्याओं से भी पाठकों को रूबरू कराती है। बिरसा मुंडा का सपना अपने धर्म व अपनी संस्कृति की रक्षा करना और धरती माता को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कर स्वराज लाना था। उनका उद्देश्य था-'अबुआ, दिशोम, अबुआ राज' (यह हमारा देश है, इस पर हम शासन करेंगे)। इसके लिए पहले उन्होंने सामाजिक सुधार किए, फिर उलगुलान (क्रांति) का रास्ता अपनाया।
बिरसा मुंडा महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह जैसे स्वतंत्रता सेनानियों की पंक्ति में सटीक बैठते हैं, लेकिन भारतीय इतिहास में उन्हें वह स्थान नहीं मिला, जिसके वह हकदार थे। अन्य स्वतंत्रता सेनानी जहां ब्रिटिश सरकार की दमनकारी, शोषणकारी नीतियों के खिलाफ लड़ रहे थे, वहीं बिरसा मुंडा इसके साथ-साथ ईसाई मिशनरियों की कुटिल नीतियों के खिलाफ भी लड़ रहे थे। इसलिए भी स्वतंत्रता सेनानियों की सूची में उनका दर्जा ऊंचा होना चाहिए। अच्छी बात है कि आजादी के अमृत महोत्सव के जरिये मौजूदा केंद्र सरकार हमारे नायकों के साथ पूर्व में किए गए भेदभाव को मिटाने का काम कर रही है। हालांकि 15 नवंबर, 2000 को बिरसा मुंडा की 125वीं जन्मशती के अवसर पर भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने बिहार के दक्षिणी जिलों से झारखंड की स्थापना की थी। झारखंड शब्द का अर्थ है जंगल। इसके साथ उन्होंने बिरसा मुंडा के 'अबुआ, दिशोम, अबुआ राज' के सपने को साकार किया। इसी कड़ी में पिछले साल मोदी सरकार ने उनकी जयंती 15 नवंबर को जनजाति गौरव दिवस के रूप में मनाने का फैसला किया। हालांकि अभी आदिवासी इलाकों को मतांतरण की समस्या से पूरी तरह निजात नहीं मिली है। बेहतर होगा कि इसके लिए बिरसा मुंडा की शिक्षा का प्रचार-प्रसार किया जाए।
कुल मिलाकर, यह वीर गाथा बिरसा मुंडा को एक श्रद्धांजलि है, जिन्होंने अपने संक्षिप्त जीवन में आदिवासी समुदाय को संगठित किया और जबरन धर्मांतरण के खिलाफ विद्रोह किया। उन्होंने भेदभाव रहित और अधिक न्यायपूर्ण समाज की कल्पना की और इसके लिए लड़ते हुए अपनी जान न्योछावर कर दी।
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पुस्तक : भारत माता के वीर पुत्र-बिरसा मुंडा
लेखक : तुहिन ए. सिन्हा/अंकित वर्मा
प्रकाशक : मंजुल प्रकाशन
मूल्य : 399 रुपये