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वाराणसी में आखिर कैसे रुके अपराध, गश्त नहीं निकलती तो बाइक दस्तों का हाल भी बेहाल

सरकारी दस्तावेज बताते हैं कि पुलिस गश्त की व्यवस्था महकमे की स्थापना के साथ ही लागू हो गई थी। शुरुआती दौर में पुलिस के पास न तो अधिक संख्याबल था और न ही संसाधन अधिक थे। अपराध नियंत्रण का सारा दारोमदार पुलिस गश्त पर ही रहता था

By Abhishek sharmaEdited By: Published: Mon, 18 Jan 2021 11:53 AM (IST)Updated: Mon, 18 Jan 2021 11:53 AM (IST)
वाराणसी में आखिर कैसे रुके अपराध, गश्त नहीं निकलती तो बाइक दस्तों का हाल भी बेहाल
पहले अपराध नियंत्रण का सारा दारोमदार पुलिस गश्त पर ही रहता था

वाराणसी, जेएनएन। शहर में आखिरकार कैसे रुके अपराध, गश्त नहीं निकलती। जीहां- यह सच है। पुलिस गश्त की व्यवस्था दो दशकों से ध्वस्त हो चुकी है। पिकेट भरोसेमंद नहीं रह गए हैं। बाइक दस्तों का हाल भी बेहाल है। इसका ही नतीजा है कि अपराधी आए दिन संगीन वारदातों को अंजाम देकर आराम से निकल जा रहे हैं।

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सरकारी दस्तावेज बताते हैं कि पुलिस गश्त की व्यवस्था महकमे की स्थापना के साथ ही लागू हो गई थी। शुरुआती दौर में पुलिस के पास न तो अधिक संख्याबल था और न ही संसाधन अधिक थे। अपराध नियंत्रण का सारा दारोमदार पुलिस गश्त पर ही रहता था। यह व्यवस्था कारगर भी थी। हर सिपाही की बीट बंंटी होती थी। वे बीट डायरी रखते थे। इसमें क्षेत्र के मानिंद लोगों के साथ ही अपराधियों तथा संदिग्ध लोगों का पूरा ब्योरा दर्ज होता था। इतना ही नहीं उनके पास क्षेत्र के विवादों की भी पूरी जानकारी रहती थी। इसकी रिपोर्ट नियमित रूप से थानेदारों के माध्यम से अफसरान को दी जाती थी।

खास बात यह कि पहले गश्त पैदल और साइकिल से होती थी। इसका नतीजा यह होता था कि अपराधियों में हर वक्त दहशत रहती थी। उसे यह डर सताता रहता था कि न जाने किधर से गश्त पर निकला जवान आ धमकेगा। जवान भी गश्त को लेकर चौकन्ना रहता था। कारण-महकमे ने उसकी जवाबदेही तय कर रखी थी। वारदात हो जाने पर थानेदार संबंधित बीट के सिपाही के खिलाफ रिपोर्ट करता था। उस स्थिति में सिपाही का निलंबन तय माना जाता था।

इन इंतजामात में तकरीबन दो दशक पहले बदलाव आना शुरू हो गया। जानकारों की मानें तो अपराध और अपराधियों का 'ट्रेंड' बदलने के साथ ही सांप्रदायिक उभार इसके लिए खासतौर पर जिम्मेदार रहा। समझा जाता है कि इसी उभार को देखते हुए आमजन में पुलिस के प्रति भरोसा बनाए रखने के लिए वर्ष 1985 में पिकेट की व्यवस्था लागू की गई। इसके बाद गश्त कमजोर पड़ती चली गई। इसका सीधा असर अपराध नियंत्रण पर पड़ा। कारण-अव्वल तो अपराधियों को पता होता है कि कहां-कहां पिकेट लगी है। इसलिए वे रास्ता बदलकर निकल जाते हैं। दूसरे अक्सर अपराधी पिकेट के आसपास ही वारदातों को अंजाम देकर सकुशल निकल जाते हैैं। इन हालात के मद्देनजर पिकेट के औचित्य पर अक्सर सवालिया निशान लगते रहे हैं।

एक पूर्व पुलिस अधिकारी साफ कहते हैं-गश्त की व्यवस्था लागू किए बगैर हालात को काबू में नहीं किया जा सकता। कहते हैं-मोहल्लेवार गश्त निकलने लगे तो चोरियां पूरी तरह रुक जाएंगी। वह पिकेट की व्यवस्था पर भी नाराजगी जताते हैं। कहते हैं-सिपाही ट्रक, ठेले-खोमचेवालों से वसूली में लगे रहेंगे तो अपराध क्या खाक नियंत्रित करेंगे। उनका मानना है कि हाइस्पीड बाइकें दौड़ा देने से गश्त की रस्म भले पूरी हो जाती हो लेकिन अगर जांच करा ली जाए तो पता चलेगा कि कोई बाइक सवार सिपाही अपने ड्यूटी के स्थान पर नहीं रहता। इसकी जगह वह ऐसा कोना थाम लेता है जहां से जेब गर्म हो सके।


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