श्रीकृष्ण जन्माष्टमी : सोमवार को गृहस्थ और मंगलवार को वैष्णवजन मनाएंगे जन्माष्टमी
ज्योतिषाचार्य पं. ऋषि द्विवेदी के अनुसार इस बार श्रीकृष्ण जन्माष्टमी रोहिणी नक्षत्र और अष्टमी का संयोग होने से जयंती नामक योग बन रहा है। ऐसा योग यदा-कदा ही देखने को मिलता है। उदय व्यापिनी रोहिणी मतावलम्बी वैष्णवजन 31 अगस्त को पर्व के विधान पूरे करेंगे।
जागरण संवाददाता, वाराणसी। हर की नगरी में श्रीहरि के बाल स्वरूप के महाउत्सव मनाने की तैयारियां जोरों पर चल रही हैं। सनातन धर्म में भाद्र मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को श्रीकृष्ण जन्माष्टमी मनाने का मान है। इस बार यह तिथि 29 अगस्त की रात्रि 10:10 बजे लग जा रही है जो 30 अगस्त को रात 12:14 बजे तक रहेगी। वहीं रोहिणी नक्षत्र 30 अगस्त को प्रातः 6:42 बजे से लग रही है, जो 31 अगस्त को सुबह 9:19 बजे तक रहेगी। ज्योतिषाचार्य पं. ऋषि द्विवेदी के अनुसार इस बार श्रीकृष्ण जन्माष्टमी रोहिणी नक्षत्र और अष्टमी का संयोग होने से जयंती नामक योग बन रहा है। ऐसा योग यदा-कदा ही देखने को मिलता है। उदय व्यापिनी रोहिणी मतावलम्बी वैष्णवजन 31 अगस्त को पर्व के विधान पूरे करेंगे। इस व्रत को करने से मनुष्य के समस्त पापों का नाश होता है। भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से वैकुंठ में स्थान प्राप्त होता है।
सर्वपापहारी है जयंती योग : काशी विद्वत परिषद के महामंत्री प्रो. रामनारायण द्विवेदी के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण एक ऐसे विशेष देवता हैं जो दसवतारों में से सर्व प्रमुख पूर्णाअवतार हैं। भगवान का जन्म द्वापर युग के अंत में भाद्र पद कृष्ण अष्टमी बुधवार को रोहिणी नक्षत्र में अर्ध रात्रि के समय वृष के चंद्रमा में हुआ था। अधिकांश उपासक अपने-अपने अभीष्ट योग का ग्रहण करते हैं। शास्त्र में इसके शुद्धा और विद्धा दो भेद हैं। उदय से उदय पर्यन्त शुद्धा और तदगत सप्तमी या नवमी से विद्धा होती है। सिद्धान्त रूप में तत्कालव्यापिनी (अर्धरात्रि में रहने वाली) तिथि अधिक मान्य होती है। यह व्रत सम्प्रदाय भेद से तिथि और नक्षत्र प्रधान हो जाता है। जब मध्य रात्रि में अष्टमी तिथि एवं रोहिणी नक्षत्र का योग होता है तब सर्वपापहारी 'जयन्ती' योग में जन्माष्टमी मनाई जाती है। इस बार गृहस्थों की जन्माष्टमी सोमवार को तो उदयव्यापिनी रोहिणी होने के कारण वैष्णवों की जन्माष्टमी मंगलवार को मनाई जाएगी। यह व्रत बाल, युवा, और वृद्ध सभी नर-नारियों को रखना चाहिए। इससे पापों की निवृत्ति और सुखादि की वृद्धि होती है।
तीन जन्मों के संपूर्ण पापों का होता है क्षय : काशी हिंदू विश्वविद्यालय के ज्योतिष विभागाध्यक्ष प्रो. गिरिजा शंकर शास्त्री के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण का प्राकट्य दिवस पर सभी सनातन धर्मावलंबी व्रत करते हैं। स्मार्त एवं वैष्णवों के धर्मशास्त्रीय नियमों में अंतर होने से यह पर्व दो दिन मनाया जाता है।
धर्मशास्त्रीय मान्यतानुसार इस व्रत को करने से तीन जन्मों के संपूर्ण पापों का क्षय हो जाता है। भगवान श्रीकृष्ण के जन्म की बेला का वर्णन करते हुए शुकदेव जी कहते हैं कि उस समय मौसम अत्यन्त सुहावना हो गया था। लोगों के हृदयों की दुर्वृत्ति शांत हो गयी थी। नक्षत्र भी प्रजापति का था। रोहिणी नक्षत्र के देवता प्रजापति (ब्रह्माजी) हैं। उस समय सभी ग्रह, नक्षत्र, तारे सौम्य हो गए थे। सभी दिशाएं प्रसन्न हो गयी थी। आकाश निर्मल हो गया था। पृथ्वी पुलकित हो गयी थी। नदियां स्वच्छ जल वाली हो गयीं थी। सरोवरों में कमल खिल गए थे। वनश्री शोभायमान हो गया था। भाद्र पद मास का अर्थ है कल्याण कारी महीना। शुक्लपक्ष की प्रशंसा सभी करते हैं। कृष्णपक्ष उपेक्षित है। भगवान ने कृष्णपक्ष को धन्य बनाया है। अष्टमी तिथि मध्य की तिथि है। सात पहले सात बाद में वारों में बुधवार को चुना यह भी मध्य में है रात्रि भी मध्य है।
यह है पूजन विधान : उपवास के दिन नित्य क्रिया से निवृत होकर सूर्य, सोम, यम, काल, संधि, भूत, पवन, दिक्पति, भूमि, आकाश, खेचर, अमर और ब्रह्मा आदि को नमस्कार करके पूर्व या उत्तर मुख बैठें हाथ में जल, फल, कुश, फूल और गंध लेकर 'ममाखिलपापप्रशमनपूर्वकसर्वाभीष्टसिद्धये श्रीकृष्णजन्माष्टमीव्रतमहं करिष्ये' मंत्र से संकल्प करें। मध्याह्न के समय काले तिलों के जल से स्नान करके देवकी जी के लिए 'सूतिकागृह' नियत करें। सामर्थ्य हो तो गाने-बजाने का आयोजन करें। प्रसूतिगृह के सुखद विभाग में सुंदर और सुकोमल बिछौने के लिए सुदृढ़ मंच पर अक्षतादि मण्डल बनवाकर उस पर शुभ कलश स्थापन करें। उस पर सोना, चांदी, तांबा, पीतल, मणि, वृक्ष, मिट्टी या चित्ररूप की मूर्ति स्थापित करें। मूर्ति में सद्य: प्रसूत श्रीकृष्ण को स्तनपान कराती हुई देवकी हों और लक्ष्मीजी उनके चरण स्पर्श किए हुए हों ऐसा भाव प्रकट रहे। इसके बाद यथा समय भगवान के प्रकट होने की भावना करके वैदिक विधि से आवरण पूजा करें। पूजन में देवकी, वसुदेव, वासुदेव, बलदेव, नंद, यशोदा और लक्ष्मी सबका क्रमश: नाम निर्दिष्ट करना चाहिए। अंत में 'प्रणमे देवजननीं त्वया जातस्तु वामन:। वसुदेवात् तथा कृष्णो नमस्तुभ्यं नमो नम:।।
सपुत्रार्घ्यं प्रदत्तं मे गृहाणेमं नमोSस्तु ते। मंत्र से देवकी को अर्घ्य दे और 'धर्माय धर्मेश्वराय धर्मपतये धर्मसम्भवाय गोविन्दाय नमो नम:।'
से श्री कृष्ण को 'पुष्पांजलि' अर्पण करें। तत्पश्चात जातकर्म, नालच्छेदन, षष्ठीपूजन और नामकरणादि करके 'सोमाय सोमेश्वराय सोमपतये सोमसम्भवाय सोमाय नमो नम:। मंत्र से चन्द्रमा का पूजन करें। फिर शंख में जल, फल, कुश, कुसुम और गंध डालकर दोनों घुटने जमीन में लगावें और ' क्षीरोदार्णवसंभूत अत्रिनेत्रसमुद्भव।
गृहाणार्घ्यं शशांकेमं रोहिण्या सहितो मम।। ज्योत्स्नापते नमस्तुभ्यं नमस्ते ज्योतिषां पते। नमस्ते रोहिणीकान्त अर्घ्यं मे प्रतिगृह्यताम्।।'
से चन्द्रमा को अर्घ्य दें। रात्रि के शेष भाग में स्त्रोत-पाठादि करें। दूसरे दिन पूर्वाह्न मे पुन: स्नानादि करके जिस तिथि या नक्षत्रादि के योग में व्रत किया हो उसका अन्त होने पर पारण करें।