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धरोहरी कला परंपरा : युवा कलाकार अंकित प्रसाद वाराणसी की अनूठी मुगलशैली चित्रकारी का वैभव निखार रहे

Heritage Art Tradition बटोही ग्वाल के पुत्र उस्ताद मूलचंद के जमाने में संपूर्ण देश में काशी की इस कला परंपरा को एक अलग विधा के रूप में मान दिया। सिक्खी ग्वाल घराने में भी इसी काल में एक अलहदा वंशबेली के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाई।

By Saurabh ChakravartyEdited By: Published: Sat, 11 Sep 2021 06:10 AM (IST)Updated: Sat, 11 Sep 2021 01:28 PM (IST)
धरोहरी कला परंपरा : युवा कलाकार अंकित प्रसाद वाराणसी की अनूठी मुगलशैली चित्रकारी का वैभव निखार रहे
युवा कलाकार अंकित प्रसाद द्वारा बनाई गई मुगल शैली की चित्रकारी

वाराणसी, कुमार अजय। नगर की संकरी गलियों में बसे सिद्देश्वरी मोहल्ले के समीपस्त ख्यात पितांबरा देवी मंदिर में देवी की दिव्य झांकी के दर्शनों के बाद जब आप मंदिर की दीवारों से लगायत छत तक पर चटख रंगों से अंकित भित्तचित्रों की ओर नजर घुमाएंगे यकीन मानिए खुद की निगाहों को चित्रकला के एक जादुई मायापाश में बंधा हुआ पाएंगे।

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आपके लिए जानकारी यह कि दशकों पहले 18वीं सदी के उतरार्द्ध में इन बोलते चित्रों का अंकन हुआ है। काशी की मुगल शैली चित्रांकन परंपरा के ध्वज वाहक उत्साद राम प्रसाद की चमत्कारी तूलिका से लगभग 250 वर्षों पूर्व बनारस में मुगल शासक के पुत्र जवां बख्श के राजकाल में गंगधार के समानांतर प्रवाहित इस रंग धार के गोमुख तक पहुंचने की आकांक्षा हो तो इन्हीं गलियों के पूर्वी मुहानों को थामते हुए राजमंदिर मोहल्ले तक टहलते चले जाइए मुलाकात करिए लगभग ढाई शताब्दियों से काशी की इस धरोहरी कला के संरक्षण और संवर्धन में खपते चले गए मुकामी सिक्खी ग्वाल खानदान की सातवीं पीढ़ी के अलमबरदार अंकित प्रसाद से। युवा कलाकार अंकित अकसरहां अपने बैठके में कलासाधना करते ही पाए जाते हैं।

यशस्वी पिता मुकुंद प्रसाद से हासिल अमानत की साज संवार को लेकर वे कितने गंभीर अपनी लगन से बताते हैं। अंकित प्रसाद से रू-ब-रू होने के पहले यह जान लेना शायद जरूरी होगा की इस कलासधाक खानदान के पितृृ-पुरुष सिक्खी ग्वाल जिन्होंने सबसे पहले लुप्त होने के कगार तक जा पहुंची परवर्ती मुगल शैली चित्रकला के सलाका पुरुष लालजी मुस्बर से आशीर्वाद रुप में पाया और एक विरासत के रुप में पूजकर इसे सात पीढ़ियों तक आगे बढ़ाया। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के भारत कला भवन से अवकाश प्राप्त पुराविद डा. आरपी सिंह के अनुसार मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय के पुत्र जवां बक्श के साथ ही चित्रकारी की मुगल शैली भी 18 वीं सदी के पूर्वार्ध में बनारस आई और यहां पहले से प्रचलित चित्रकला की राजस्थानी शैली के साथ घुलमिलकर परवर्ती मुगल शैली की चित्रकला के रूप में प्रतिष्ठित हुई। तत्कालीन काशीराज ईश्वरी नारायण सिंह के राज्यकाल में इस शाली को परम ऐश्वर्य मिला। प्रमाण उपलब्ध हैं कि सिक्खी ग्वाल के पुत्र बटोही ने इस कला को उत्तर प्रदेश व बिहार के राजघरानों से लगायत कला प्रेमी रईशों के बीच बहुत सम्मान दिलाया।

बटोही ग्वाल के पुत्र उस्ताद मूलचंद के जमाने में संपूर्ण देश में काशी की इस कला परंपरा को एक अलग विधा के रूप में मान दिया। सिक्खी ग्वाल घराने में भी इसी काल में एक अलहदा वंशबेली के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाई। उस्ताद मूलचंद के दौर में ही इस घराने ने अपनी रचनाओं के लिए अपनी अलग तूलिका और अलग रंगों का भी वरण किया। कलाविद राधाकृष्ण गणेशन के अनुसार उस्ताद मूलचंद ने ही राजस्थानी व मुगल शैली के अनोखे तालमेल से चित्रांकन की एक मिश्रित शैली को जन्म दिया जिसने मुगलशैली के कड़े अनुशासन के साथ बनारसी मस्ती का पुट भी घुला मिला था।

आगे चलकर उस्ताद रामप्रसाद, बटुक प्रसाद, गोपाल प्रसाद, शारदा प्रसाद तथा उस्ताद मुकुंद प्रसाद ने बड़े जतन से इस विधा को न सिर्फ सहेजा अपितु इसे गुमनामी होने से भी बचाया। उस्ताद मूलचंद कागज के अलावा हाथी दांत पर भी चित्रांकन करते थे जहां तक अंकित प्रसाद की अभी तक की संक्षिप्त कला यात्रा का सवाल है वह ढेर सारी उम्मीदे जताता है। प्रयोद धर्मिता के साथ लगातार समृद्ध होती जाती अंकित की कृति श्रृंखला कितनी प्रभावी है इसका अंदाज इसी से लगाया जा सकता है। कि परवर्ती मुगल शैली के साथ ही अंकित की तूलिका ने मुगल शैली चित्रांकन से समायोजन करते हुए जम्मू शैली और पहाड़ी शैली को भी खूब सिद्दत से साधा है। अपनी दक्षता और कुशलता से सारी शैलियों की खुशुशियत को बड़े ही करीने से बांधा है।


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