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घोसी विधानसभा उप चुनाव ; एक बार फिर विकास के हिंडोले में झूलेंगी जातियां, दल भी जाति देखकर करते हैं चयन

जिले में कम्युनिस्ट से लेकर कल्पनाथ युग तक आदर्शो नीतियों एवं सिद्धांतों के नाम पर मतदान होता रहा पर अब विकास एवं आदर्श के मुद्दे बस मंच तक सिमट गए हैं।

By Saurabh ChakravartyEdited By: Published: Sat, 28 Sep 2019 08:45 PM (IST)Updated: Sun, 29 Sep 2019 08:14 AM (IST)
घोसी विधानसभा उप चुनाव ; एक बार फिर विकास के हिंडोले में झूलेंगी जातियां, दल भी जाति देखकर करते हैं चयन
घोसी विधानसभा उप चुनाव ; एक बार फिर विकास के हिंडोले में झूलेंगी जातियां, दल भी जाति देखकर करते हैं चयन

घोसी [अरविंद राय]।  जिले में कम्युनिस्ट से लेकर कल्पनाथ युग तक आदर्शो, नीतियों एवं सिद्धांतों के नाम पर मतदान होता रहा पर अब विकास एवं आदर्श के मुद्दे बस मंच तक सिमट गए हैं। ईवीएम का बटन जाति और मजहब के आधार पर दबता है। राजनीतिक दल भी प्रत्याशी का उनकी जाति और जातिगत मतों की संख्या एवं प्रत्याशी की स्वजातीय मतदाताओं के बीच पैठ देखकर टिकट देते हैं। अब तक सामने आई तस्वीर से तय है कि इस उपचुनाव में एक बार फिर विकास के हिंडोले में जातियों को झूलना होगा।

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जाति और धर्म के नाम पर मतदान करने के युग का सूत्रपात नब्बे के दशक में हुआ तो मऊ जनपद भी अछूता नहीं रहा। बावजूद इसके यहां पर मतदान का मुख्य आधार विकास का मुद्दा ही रहा। घोसी लोकसभा क्षेत्र की हरेक विधानसभा में लोकतंत्र का स्वस्थ रूप विकास पुरूष कल्पनाथ राय के अवसान बाद ही जाति और मजहब के विषाणु से ग्रसित हो गया। उनके देहावसान के बाद हुए वर्ष 1989 के चुनाव में कुछ हद तक लोकतंत्र की मर्यादा कायम रही जब यहां के हर जाति के मतदाता ने सुभाष यादव का वरण किया।

दलित मजदूर किसान पार्टी के भंग होने के बाद गठित जनता दल के प्रत्याशी फागू चौहान ने अतिपिछड़ों को एकमंच प्रदान किया तो 1991 का चुनाव उनके नाम रहा। 1993 में तो सपा के पिछड़ों और बसपा के दलितों का गठबंधन फागू जैसे धुरंधर को जमीन चटा दिया। इस चुनाव मे राममंदिर की लहर को झूठा साबित कर अंजान चेहरे अक्षयबर भारती ने जीत दर्ज किया। 1996 में भाजपा के सवर्ण एवं अतिपिछड़़ों के मतों ने फागू चौहान का कमल खिलाने का अवसर दिया। वर्ष 2002 तक अतिपिछड़ों विशेषकर चौहान वर्ग के सर्वमान्य नेता के रूप में स्थापित चौहान ने इस चुनाव में कमल खिलाया तो 3007 में नीला झंंडा फहराया। 2012 में नीलम चौहान ने बसपा प्रत्याशी फागू चौहान के मतों में से 19521 अपने नाम कर लिया तो सपा के सुधाकर सिंह की राह आसान हो गई। सुधाकर की इस जीत में नीलम चौहान की सेंधमारी के साथ ही घर का लाल सुधाकर है नारे का योगदान रहा। 2017 के चुनाव में तत्कालीन विधायक रहे सुधाकर से लोगों का मोहभंग हुआ तो बसपा के अब्बास अंसारी के मीम और भीम समकरण को ध्वस्त करने के लिए अतिपिछड़़ों एवं सवर्ण मतदाताओं के एका ने भाजपा प्रत्याशी फागू चौहान को घोसी की पिच पर छक्का लगाने का अवसर दिया।

इस बार भी सभी दल ऐसे जातियों एवं संप्रदाय के प्रत्याशियों को मैदान में उतारा है या उतारने की जुगत में हैं जो अपनी जाति के मतदाताओं को अपने पाले में लाने में सक्षम हो। बहरहाल यह तय है कि अब मतदाता से लेकर प्रत्याशी तक आदर्श की बातें बस मंच पर या मीडिया के समक्ष ही करते हैं। जातियों का सर्वे और सोशल इंजीनियरिंग का गणित ठीक करने के बाद ही राजनीतिक दल चुनाव मैदान में प्रत्याशी उतारते हैं। ऐसे में विकास का मुद्दा कोसों दूर रह जाता है। जाहिर है कि एक बार फिर जातियों के दम पर जीतने का प्रयास होगा हालांकि विकास केे नाम पर इनको ङ्क्षहडोला थमा दिया जाएगा। कटु सत्य यह है कि जीत के बाद जनप्रतिनिधि भी क्षेत्र के विकास की बजाय अगले चुनाव के लिए स्वजातीय मतदाताओं को ही तरजीह देते हैं या चंद विकास कार्य उनके ही क्षेत्र में संपादित करने का प्रयास करते हैं।


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