गणेश महोत्सव 2021 : कोयम्बटूर से वाराणसी पधारे मंगलमूर्ति गजानन, दक्षिण भारतीय शिल्प में ढली अनूठी प्रतिमा
गणेश महोत्सव के पारंपरिक आयोजन स्थल श्रीराम तारक आंध्र आश्रम में स्थापना से पूर्व शास्त्रीय रीति के अनुसार आश्रम के द्वार पर भक्तों ने प्रबंध न्यासी वीवी सुंदर शास्त्री की अगुवाई में वैदिक मंत्रों के सस्वर वाचन से गणपति का स्वागत अभिनन्दन किया।
वाराणसी, कुमार अजय। आम चलन से अलग विनायक पूजन पर्व में पूरे नौ दिनों के गणेश नवरात्र महोत्सव का आयोजन करने वाली नगर की दाक्षिणात्य बस्ती (मानसरोवर से हनुमान घाट तक) इस बार यह उत्सव नवेले गजानन के साथ मनाएगी। इस विशिष्ट अवसर के लिए बीते दो वर्षों से कोयम्बटूर से कुशल शिल्पियों द्वारा गढ़ी जा रही एक क्विंटल से भी अधिक भार वाली पंच धातु की यह दिव्य प्रतिमा बुधवार की देर रात सड़क मार्ग से वाराणसी पहुंचाई गई। महोत्सव के पारंपरिक आयोजन स्थल श्रीराम तारक आंध्र आश्रम में स्थापना से पूर्व शास्त्रीय रीति के अनुसार आश्रम के द्वार पर भक्तों ने प्रबंध न्यासी वीवी सुंदर शास्त्री की अगुवाई में वैदिक मंत्रों के सस्वर वाचन से गणपति का स्वागत अभिनन्दन किया। तात्कालिक तौर पर मनोहारी झांकी वाली इस मूर्ति को आश्रम के इष्ट देव प्रभु श्रीराम के पार्श्व में अस्थायी आसन दिया गया है। वीवी सुंदर के अनुसार नवरात्र महोत्सव के बाद कलश के सांकेतिक विसर्जन के उपरांत इस प्रतिमा को आश्रम के प्रथम तल पर निर्मित देवालय में नित्य पूजित विग्रह के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया जाएगा।
दक्षिण भारतीय शिल्प कला की अनूठी मिसाल है रत्न जटित प्रतिमा
क्रमशः वाम व दक्षिण भाग में रिद्धि-सिद्धि के बीच ऊंचे सिंघासन पर आरूढ़ गणनायक की यह मूर्ति दक्षिण भारतीय धातु शिल्प कला का अद्भुत उदाहरण है। दक्षिण भारत के देवालयों में स्थापित व मंदिरों की भित्तियों पर उत्कीर्ण प्रस्तर शिल्प की भाव-मुद्राओं को पूरी दक्षता के साथ धातु शिल्प में उतारने वाले कुशल शिल्पियों ने किस हस्त लाघव का परिचय दिया है यह प्रतिमाओं के गढ़न में प्रयुक्त हर पेंच खम से समझा जा सकता है। इसके अलावा प्रतिमाओं की कंठ मालिकाओं कर्ण फूलों आदि आभूषणों सहित विनायक के किरीट पर की गई रक्तिम वर्ण के रत्नों की मीनाकारी इस शिल्प को न केवल काशी अपितु समूचे उत्तर भारत की धरोहरि कृति बनाती है।
जब संकल्प बनकर उभरी मन की पीड़ा
आश्रम के न्यासी सुंदर शास्त्री के अनुसार वैधानिक वर्जनाओं के चलते जब सार्वजनिक उत्सवों में मंचारुढ़ मृण्मय विग्रहों को गंदे और गलीज पोखरों में विर्सजित करने की नौबत आई तो मन पीड़ा से व्यथित हो उठा। सार्थक विकल्प के रूप में यह पीड़ा ही संकल्पबद्ध हुई व मन की उद्वेलना इस रचना के रूप में प्रतिष्ठित हुई।