फ्रेंडशिप डे : मंदिर में हाथ पकड़कर किया था सखी धरान, अब बदल गई परिपाटी
अगस्त माह के पहले रविवार को फ्रेंडशिप डे मनाने का रिवाज है।
वंदना सिंह, वाराणसी : अगस्त माह के पहले रविवार को फ्रेंडशिप डे मनाने का रिवाज है। अपनी काशी में पहले मित्रता बनाने के लिए सखी धरान जैसी परंपरा थी। अब परिपाटी आभासी दुनिया में ही सिमट कर रह गई है। आइए कुछ पुराने दौर की सखियों की यादें ताजा करते हैं- मेरी सखी तुम लोगों की सहेलियों जैसी नहीं है कि बस खेला कूदा, खाया पीया, मौजमस्ती हुई और चल दिए। हम दोनों तो मानों बहनें थीं। हर सुख-दुख में साथ साथ। बिना एक दूसरे का चेहरा देखे दिन नहीं कटता था। मगर जैसे ही पोते-पोतियों ने अपनी 86 वर्षीय दादी किशोरी देवी से उनकी सखी का नाम पूछा तो दादी के चेहरे पर बचपन की यादें कौंध गई। उनके चेहरे पर शरारत के साथ सखी के प्रति गर्व की अनुभूति साफ झलक रही थी।
उगापुर निवासी किशोरी देवी बताती हैं कि -अरे बच्चों क्या करुं जब से सखी धरान किया तब से सखी का नाम नहीं ले सकते, सिर्फ सखी ही आजीवन कहना होता है। किशोरी देवी बताती हैं कि हमारे जमाने में ये फ्रेंडशिप डे नहीं होता था। मगर दोस्ती बड़ी मजबूत होती थी। उस वक्त दो सहेलियां जिनमें आपस में पटती थी वे सखी धरान करती थीं। यह एक रस्म हुआ करती थी जिसमें दोनों के परिवार के लोग शामिल होते थे। किशोरी देवी बताती हैं हम दोनों बचपन में चरखा एक साथ कातते थे। घर में पकवान बनता तो सखी भी आकर हाथ बंटाती थी। इस दौरान हम दोनों खूब लड्डू उड़ाया करते थे। सावन में एक दूसरे को झूला झुलाना तो कभी नहीं भूलते थे। अगर हमारे बीच कोई चुगली लगाने की कोशिश करता था तो उसकी अच्छी तरह खबर लेते थे। जब हम दोनों की शादी अलग अलग शहरों में हुई तो उस वक्त एक दूसरे क ा साथ छूटने का दुख हमें खाए जा रहा था लेकिन हमारी दोस्ती इतनी मजबूत थी कि आज भी हम मिलते हैं। एक दूसरे के पोते पोतियों को संस्कार देते हैं। छुटपन में मंदिर में एक दूसरे का हाथ थामकर हमने सखी धरान किया था। किशोरी देवी बताती हैं जगदंबा, सरस्वती, मैना, सुनैना, पनकुंवर, इंद्रावती, विद्यादेवी, धिराजी, शारदा ये मेरी सखियों की टोली है। इनके साथ सखी धरान किया था। उधर भवानीपुर निवासी 70 वर्षीय निर्मला बताती हैं जब भी उस वक्त के बारे में मैं और मेरी सखी शैल सोचते हैं तो खूब हंसी आती है। बचपन की शरारतों और किशोरवय समय की शैतानियां बस क्या दिन थे। यह संयोग ही था कि हमारी शादी एक ही गांव में हुई। आज भी हम दोनों एक दूसरे के करीब हैं। हमारे बच्चे, पोते पोतियों, बहुएं ऐसे रहते हैं मानों एक ही परिवार हो। जब हम दोनों बहुत छोटे थे तब सखी धरान किया था। उस समय हमारे यहां पकवान बने थे। बाकायदा दावत दी गई थी। खूब धूमधाम से इस रस्म को हमने मनाया था। बचपन में गांव की महिलाएं हम दोनों से मजाक में कहती थीं कि शादी के बाद क्या अपनी सखी को भी ससुराल ले जाओगी तो कई बार हम दोनों ने कहा था कि हम दोनों की शादी एक ही जगह होगी। ईश्वर ने हमारी सुन ली। मेरे ससुराल से कुछ ही दूर शैल का घर है। जाने क्या था सखी धरान : दरअसल सखी धरान आज के वक्त में लुप्त सा हो गया है। सखी धरान कोई खेल नहीं वर्षो पहले एक रस्म होता था। इसमें अपनी खास सहेली चुननी होती थी जिससे खूब जमती हो। जिस दिन सखी धरान की रस्म होती थी उस दिन दोनों सखियों का परिवार और सखियां स्नान करके मंदिर जाते और ईश्वर के सामने एक दूसरे की अंगुलियों को हाथों में फं साकर सखी धरान का संकल्प लेते थे। इस दौरान दोनों एक दूसरे का नाम आखिरी बार लेते और एक दूसरे को मिठाई और उपहार यथा सामर्थ देते थे। इस रस्म के बाद सखी का नाम आजीवन नहीं लिया जा सकता था। दोनों सहेलियां एक दूसरे क ो केवल सखी ही कहकर बुलाएंगी।