विलुप्त हो रहे पलाश, नहीं दिखता हरसिंगार, दहकता दिखता था जंगल
एक जमाना था जब मझवारा क्षेत्र के बनअवध से लेकर वन देवी तक और देवारा से लेकर रानीपुर के उसर तक जंगलों में पलाश की बहुलता रही।
मऊ, जेएनएन। होली का अंदाज बदला है। जंगल कट गए और संरक्षण की कोशिश नहीं। अब उडऩछू हुए पलाश। हरसिंगार भी बस चंद शौकीनों की वाटिका तक सिमट गया है। अब होली में इनके फूल से बने प्राकृतिक रंग की बजाय त्वचा के लिए बेहद नुकसानदेह रासायनिक रंगों का प्रयोग होता है। एक जमाना था जब मझवारा क्षेत्र के बनअवध से लेकर वन देवी तक और देवारा से लेकर रानीपुर के उसर तक जंगलों में पलाश की बहुलता रही। वर्ष 1960 तक इस जिले से पलाश के पत्ते और पुष्प अन्य स्थानों को भेजे जाते रहे। बाग-बगीचों को खेत का स्वरूप दिए जाने से पलास सहित इस प्रजाति के पौधे गायब हो गए। कभी पलास के पत्तों पर ही मुसहर वर्ग की आजीविका टिकी थी। वर्ष पर्यंत इसके पत्तों से पत्तल बनाते और बेचते थे। अब जमाना बदला तो प्लास्टिक एवं थर्मोकोल के पत्तल ही पसंद बन गए हैं। हाल यह कि चौतरफा मार से कभी जंगल में आग लगने का भान कराने वाले पलाश या टेसू के लाल फूल अब किताबों में ही दिखते हैं। अलबत्ता सेमल के फूल पलाश की याद दिलाते हैं।
यूं फूलों से बनता था रंग
पुरनिए बताते हैं कि पलाश, हरसिंगार और सेमल के फूल को पानी भरी बाल्टी में डाल देते हैं। दूसरे दिन फूल निकाल लेते हैं। बाल्टी का पानी रंगीन हो जाता है। यह रंग त्वचा को नुकसान की बजाय लाभ पहुंचाता है। निकले फूल फेंकने की बजाय सूखा कर इनका चूर्ण बनाते हैं। इस चूर्ण से अंजन एवं अन्य सौंदर्य प्रसाधन सामग्री बनती है। हरसिंगार से बने फेसपैक की आज भी मांग है।
यह है औषधीय गुण
प्राकृतिक चिकित्सक डा. रामनिवास शर्मा बताते हैं कि हरसिंगार जोड़ों के दर्द एवं बवासीर के लिए उपयोगी है। सायटिका के दर्द में तो यह रामबाण है। पलाश पेट रोगों के लिए अचूक औषधि है। सेमल के पुष्प से बने काजल के प्रयोग से आंख की रोशनी बढ़ती है।