BHU की प्रोफेसर को शिष्य ने दी मुखाग्नि, जन्मदिन से एक दिन पूर्व अंतिम सांस ली प्रो. संघमित्रा ने
वाराणसी में बीएचयू की प्रोफेसर को शिष्य ने मुखाग्नि दी जन्मदिन से एक दिन पूर्व अंतिम सांस ली हिंदी विभाग की प्रो. संघमित्रा ने।
वाराणसी, जेएनएन। सात मई को यानी कि आज बीएचयू में हिंदी विभाग की प्रोफेसर संघमित्रा का जन्म दिन था, घर-परिवार तो नहीं था, लेकिन शिष्य और विश्वविद्यालय परिवार संग धूमधाम से मनाने की तैयारी थी, क्योंकि वह अपने जीवन के साठ बरस पूरे कर रही थी। इस बीच परिसर के जोधपुर कॉलोनी स्थित आवास पर बुधवार की रात कैंसर के चलते उनके निधन की सूचना आयी। इसके बाद उनके जानने वाले लोग व छात्र शोक में डूब गए।
सबसे भावनात्मक पल उस समय दिखा जब हरिश्चंद्र घाट पर अविवाहित प्रो. संघमित्रा को मुखाग्नि उनके शिष्य अनुज ने दी। हालांकि, कुछ छात्रों ने बताया कि वह उनके दत्तक पुत्र के रूप में भी थे। आदिवासी समाज से आने के कारण शोषितों व गरीबों के लिए मुखर रहती थी और हर वक्त सहायता करती थी। कुछ छात्रों ने बताया कि वह हमेशा विभाग की गुटबाजियों से दूर ही रहती थी। विवादों से उनका दूर-दूर तक कोई नाता नहीं था। प्रो. संघमित्रा ने 2013 से ही कैंसर से जूझ रही थी। शिष्य अनुज 14 साल की उम्र से ही उनकी सेवा में लगा रहा। 1998 में बीएचयू में असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में नियुक्त प्रो संघमित्रा की नौकरी अभी पांच साल और शेष थी।
कैंसर से हारीं, लेकिन जिंदगी में हर जंग को उन्होंने अकेले ही किया फतह
सात मई को यानी कि गुरुवार को बीएचयू में हिंदी विभाग की प्रोफेसर संघमित्रा का 60वें जन्मदिन की तैयारी चल रही थी। परिवार तो नहीं था लेकिन शिष्य और विश्वविद्यालय परिवार के कुछ लोगों संग इस दिन उनकी सुख-दुख बांटने की मंशा थी। क्योंकि साठ बरस एक अहम पड़ाव होता है जीवन का, इसलिए उनके प्रिय शिष्य अनुज ने यादगार बनाने में कोई कसक नहीं छोड़ी थी। इसी बीच मनहूसियत की खबर आती है कि कैंसर से लड़ते-लड़ते वह जिंदगी की जंग हार गईं। परिसर में जोधपुर कालोनी स्थित आवास पर बुधवार की रात कैंसर के चलते उनके निधन की सूचना आयी। इसके बाद उनके जानने वाले लोग व छात्र शोक में डूब गए। सबसे भावनात्मक पल उस समय दिखा जब हरिश्चंद्र घाट पर प्रो. संघमित्रा को मुखाग्नि उनके शिष्य अनुज ने दी। अनुज बीएचयू के माइक्रोबायोलॉजी विभाग में कर्मचारी के रूप में कार्यरत भी हैं। प्रो. संघमित्रा अविवाहित थी और अकेले ही जीवन निर्वाह करती थी। अनुज बताते हैं वह उनके लिए बेटे से भी बढ़कर थे। ग्रेजुएशन के समय यानी कि 2004 से ही उनके सानिध्य में थे और पढ़ाई से लेकर नौकरी तक उन्ही के साथ परिवार जैसे रहे। अनुज के मुताबिक कैंसर से भले ही हार गई हों लेकिन जिंदगी के हर जंग को बड़ी बहादुरी के साथ उन्होंने जीता था। प्रो. संघमित्रा के दो भाई भी हैं, जिनमें से एक की हाल ही मौत हो चुकी है और दूसरे साथ में ही रहते हैं।
सभी वर्ग के छात्रों का रखती थी ध्यान
बीएचयू के छात्रों ने शोक व्यक्त करते हुए बताया कि आदिवासी समाज से आने के कारण शोषितों व गरीबों का दर्द महसूस करती थी, लेकिन सभी वर्ग के छात्रों के कल्याण के लिए लिए मुखर रहती थी और हर कठिन घड़ी में सहायता करती थी। कुछ छात्रों ने बताया कि वह विभाग की गुटबाजियों से दूर ही रहती थी और विवादों से उनका दूर-दूर तक कोई नाता नहीं था। महामना की बगिया में वह 1998 में हिंदी की असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में नियुक्त हुई थी और अभी पांच साल शेष थे हिंदी की सेवा को, लेकिन बीमारी ने यह मौका छीन लिया। हालांकि उन्होंने हिंदी की सेवा अपने शोधों से बखूबी करी है। दलित समाज की स्थिति पर संत रैदास का दृष्टिकोण, साहित्य व संस्कृति, मिडाइवल पोएट्री शोध के सर्वप्रमुख विषय रहे हैं।