Corona warrior : वाराणसी में चिताओं के बीच सहरी-इफ्तार कर फर्ज अदायगी का पैगाम दे रहे इम्तियाज
सीएमओ कार्यालय-दुर्गाकुंड में संविदा पर तैनात दुर्गाकुंड निवासी शव वाहिनी चालक इम्तियाज घर-परिवार के साथ समय बिताने की बजाय दिन रात अस्पताल और श्मशान घाट के चक्कर लगा रहे हैं। इस दरम्यान हास्पिटल से मृतक का जरूरी कागजात बनवाना हो या घाट पर दाह-संस्कार में मदद कर रहे हैं।
वाराणसी मुहम्मद रईस । मुकद्दस रमजान का महीना चल रहा है। हर मुस्लिम रोजा रखते हुए खुदा की इबादतों में मशगूल हैं। मगर कुछ ऐसे भी हैं, जिनके लिए उनका फर्ज ही खुदा की इबादत का जरिया है। इस फर्ज के लिए कोरोना संकटकाल में न तो उन्हें परिवार का ध्यान न खुद की चिंता। खुदा से बस यही इल्तिजा कि फर्ज के रास्ते में कहीं कोई कसर न रहने पाए। कुछ यही हाल शव वाहिनी ड्राइवर इम्तियाज का भी है। अस्पताल में कोरोना से मौत होने पर शवों को इम्तियाज दाह-संस्कार के लिए हरिश्चंद्र घाट तक पहुंचाते हैं। रोजा भी रहते हैं, लेकिन इफ्तार के लिए घर का दस्तरख्वान इनके नसीब में नहीं। घाट की दुकानों से कभी चाय, तो कभी पानी पीकर रोजा खोल लेते हैं और भोर में यहीं घाट की दुकान से ही कुछ खाकर रोजा रह लेते हैं।
महामारी की दूसरी लहर में लोग तेजी से इसके शिकार होकर अपनी जान गंवा रहे हैं। अस्पताल-श्मशान तो छोड़ ही दीजिए, लोग बाजार जाने से भी खौफ खा रहे हैं। मगर सीएमओ कार्यालय-दुर्गाकुंड में संविदा पर तैनात दुर्गाकुंड निवासी शव वाहिनी चालक इम्तियाज घर-परिवार के साथ समय बिताने की बजाय दिन रात अस्पताल और श्मशान घाट के चक्कर लगा रहे हैं। इस दरम्यान हास्पिटल से मृतक का जरूरी कागजात बनवाना हो या घाट पर दाह-संस्कार में मदद, इम्तियाज इस मुश्किल घड़ी में सब कुछ कर रहे हैं। इम्तियाज कहते हैं कि इस मुश्किल घड़ी में मुझसे जो बन पड़ रहा है, वो कर रहा हूं। अस्पताल और श्मशान की इस 24 घंटे की दौड़भाग में जहां अजान हुई वहीं पानी पीकर इफ्तार कर लिया। कभी अस्पताल की मार्चरी में, कभी श्मशान घाट पर और कभी एंबुलेंस में। हरिश्चंद्र घाट पर 24 घंटे दुकानें खुली रहती हैं। भोर में यहीं पर कुछ खा-पीकर रोजे की नीयत कर लेता हूं।
तीन ड्राइवर, 24 घंटे की ड्यूटी
इम्तियाज बताते हैं कि तीन शव वाहिनी पर उन्हें लेकर तीन ड्राइवर की 24 घंटे ड्यूटी है। आपसी समन्वय से दिनभर में दो-तीन घंटे का ही आराम मिल पाता है। अपनों को खोने के गम में बिलखते परिवार, उनके अंतिम बार न देख पाने की कसक, कंधा न देना पाने का मलाल देखते-देखते आंखों का पानी सूख चुका है। जहां कंधा लगाने की जरूरत हुई वहां कंधा दिया, जहां मुनासिब लगा दाह-संस्कार के रीति-रिवाजों में भी सहयोग किया।