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बीएचयू के सिंहद्वार पर अंग्रेजी में लिखा बनारस हिंदू विश्वविद्यालय अखर गया महात्‍मा गांधी को

Banaras Hindu University वाराणसी में 80 वर्ष पूर्व 21 जनवरी 1942 का दिन वसंत पंचमी का पर्व था और काशी हिंदू विश्वविद्यालय में खासी गहमागहमी। इस दिन विश्वविद्यालय के 25 वर्ष पूरे हो चुके थे और विश्वविद्यालय अपनी रजत जयंती मना रहा था।

By Abhishek SharmaEdited By: Published: Fri, 21 Jan 2022 11:34 AM (IST)Updated: Fri, 21 Jan 2022 11:34 AM (IST)
बीएचयू के सिंहद्वार पर अंग्रेजी में लिखा बनारस हिंदू विश्वविद्यालय अखर गया महात्‍मा गांधी को
21 जनवरी 1942 को वसंत पंचमी पर बीएचयू का 25 वर्ष पूरा हुआ था।

वाराणसी [शैलेश अस्थाना]। आज से ठीक 80 वर्ष पूर्व 21 जनवरी 1942 का दिन, वसंत पंचमी का पर्व और काशी हिंदू विश्वविद्यालय में खासी गहमागहमी। हो भी क्यों न, आखिर विश्वविद्यालय के 25 वर्ष पूरे हो चुके थे और विश्वविद्यालय अपनी रजत जयंती मना रहा था। वायसराय समेत देश के अनेक राजा-महाराजा, धनिक सेठ, राजनेता, विद्वान, छात्र और आमजन इसमें भाग लेने पहुंचे थे। इस सभा में महात्मा गांधी ने अपने भाषण में सबसे ज्यादा जिस बात पर बल दिया वह थी, अंग्रेजी का विरोध। उन्होंने साफ कहा कि, हम अंग्रेजों को गाली देते हैं कि उन्होंने हमें गुलाम बना रखा है, यहां मैं देख रहा हूं कि हमने खुद ही अंग्रेजी को अपने सिर पर चढ़ा रखा है। विश्वविद्यालय के गेट पर तब अंग्रेजी में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय बड़े अक्षरों में लिखने और यही नाम हिंदी में अत्यंत छोटा लिखना उन्हें अखर गया था, उन्होंने इस पर कड़े शब्दों में आपत्ति जताई।

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कहा कि "एक और बात मैंने देखी। आज सुबह हम श्री शिवप्रसाद गुप्त के घर से लौट रहे थे। रास्ते में विश्वविद्यालय का विशाल प्रवेश द्वार पड़ा। उस पर दृष्टि गई तो देखा, नागरी लिपि में हिन्दू विश्वविद्यालय इतने छोटे अक्षरों में लिखा है, कि ऐनक लगाने पर भी नहीं पढ़ा जाता, पर अंग्रेजी में उसी नाम ने तीन चौथाई से भी ज्यादा जगह घेर रखी थी। मै हैरान हुआ कि यह क्या मामला है ? इसमें मालवीय जी महाराज का कोई कसूर नहीं। यह तो किसी इंजीनियर का काम होगा। लेकिन सवाल तो यह है कि अंग्रेजी की वहां जरूरत ही क्या थी ? क्या हिंदी या फ़ारसी में कुछ नहीं लिखा जा सकता था?

उन्होंने कहा कि "मैं जो कुछ कहूंगा ,मुमकिन है वह आपको अच्छा न लगे, उसके लिए आप मुझे माफ कीजिएगा यहां आकर जो कुछ मैंने देखा और देखकर मेरे मन में जो चीज पैदा हुई, वह शायद आपको चुभेंगी। मेरा ख्याल था कि कम से कम यहां तो सारी कार्रवाई अंग्रेजी में नहीं बल्कि राष्ट्रभाषा में ही होगी। मैं यहां बैठा यही इंतजार कर रहा था कि कोई न कोई तो आखिर हिंदी या उर्दू में कुछ कहेगा। हिंदी उर्दू न सही कम से कम मराठी या संस्कृत में ही कोई कुछ कहता लेकिन मेरी सब आशाएं निष्फल हुईं। अंग्रेजों को हम गालियां देते हैं कि उन्होंने हिन्दुस्तान को गुलाम बना रखा है, लेकिन अंग्रेजी के तो हम खुद ही गुलाम बन गये हैं। अंग्रेजों ने हिन्दुस्तान को काफी पामाल किया है। इसके लिए मैंने उनकी कड़ी से कड़ी टीका भी की है। परंतु अंग्रेजी की अपनी इस गुलामी के लिए मैं उनको जिम्मेदार नहीं समझता। खुद अंग्रेजी सीखने और अपने बच्चों को अंग्रेजी सिखाने के लिए हम कितना अधिक मेहनत करते हैं ? अगर कोई हमें कह देता है कि हम अंग्रेजों की तरह अंग्रेजी बोल लेते हैं, तो मारे खुशी के फूले नहीं समाते। इससे बढ़कर दयनीय गुलामी और क्या हो सकती है? इसकी वजह से हमारे बच्चों पर कितना कितना जुल्म होता है ? अंग्रेजी के प्रति हमारे इस मोह के कारण देश की कितनी शक्ति और कितना श्रम बरबाद होता है? इसका पूरा हिसाब तो हमें तभी मिल सकता है, जब गणित का कोई विद्वान इसमें दिलचस्पी ले। कोई दूसरी जगह होती, तो शायद यह सब बर्दाश्त कर लिया जाता, मगर यह तो हिंदू विश्वविद्यालय है। जो बातें इसकी तारीफ में अभी कही गई हैं, इनमें सहज ही एक आशा यह भी प्रकट की गई है कि यहां के अध्यापक और विद्यार्थी इस देश की प्राचीन संस्कृति और सभ्यता के जीते-जागते नमूने होंगे।

छात्र हिंदी या हिंदुस्तानी अथवा अपनी मातृभाषा में पढ़ाने की करें मांग : महात्मा गांधी ने कहा कि मालवीय जी ने तो मुंह -मांगी तनख्वाहें देकर अच्छे से अच्छे अध्यापक यहां आप लोगों के लिए जुटा रखे हैं। तब उनका दोष तो कोई कैसे निकाल सकता है ? दोष जमाने का है। आज हवा ही कुछ ऐसी बन गई है, कि हमारे लिए उसके असर से बच निकलना मुश्किल हो गया है। लेकिन अब वह जमाना भी नहीं रहा, जब विद्यार्थी जो कुछ मिलता था, उसी में संतुष्ट रह लिया करते थे। अब तो वे बड़े-बड़े तूफान भी खड़े कर लिया करते हैं, छोटी-छोटी बातों के लिए भूख-हड़ताल तक कर देते हैं। अगर ईश्वर उन्हें बुद्धि दे, तो वे कह सकते हैं, हमें अपनी मातृभाषा में पढ़ाओ। मुझे यह जानकर खुशी हुई कि यहां आंध्र के 250 विद्यार्थी हैं। क्यों न वे सर राधाकृष्णन् के पास जाएं और उनसे कहें कि यहां हमारे लिए एक आंध्र-विभाग खोल दीजिए और तेलुगू में हमारी सारी पढ़ाई का प्रबंध करा दीजिए? और अगर वे मेरी अक्ल से काम करें, तब तो उन्हें कहना चाहिए कि हम हिंदुस्तानी हैं, हमें ऐसी भाषा में पढ़ाइए, जो सारे हिंदुस्तान में समझी जा सके। और ऐसी जबान तो हिंदुस्तानी ही हो सकती है।

जापान का दिया उदाहरण, बोले, कहां जापान, कहां हम.... : महात्मा गांधी ने कहा कि "जापान आज अमेरिका और इंग्लैंड से लोहा ले रहा है। लोग इसके लिए उसकी तारीफ करते हैं। मैं नहीं करता। फिर भी जापान की कुछ बातें सचमुच हमारे लिए अनुकरणीय हैं। जापान के लड़कों और लड़कियों ने यूरोप वालों से कुछ जो पाया है, अपनी मातृभाषा जापानी के जरिए ही पाया है, अंग्रेजी के जरिए नहीं। जापानी लिपि बड़ी कठिन है, फिर भी जापानियों ने रोमन लिपि को कभी नहीं अपनाया। उनकी सारी तालीम जापानी लिपि और जापानी जबान के जरिये ही होती है। जो चुने हुए जापानी पश्चिमी देशों में खास-खास विषयों की तालीम के लिए भेजे जाते हैं, वे भी जब आवश्यक ज्ञान पाकर लौटते हैं, तो अपना सारा ज्ञान अपने देशवासियों को जापानी भाषा के जरिए ही देते हैं। अगर वे ऐसा नहीं करते और देश में आकर दूसरे देशों के जैसे स्कूल और कालेज अपने यहां भी बना लेते, और अपनी भाषा को तिलांजलि देकर अंग्रेजी में सब कुछ पढ़ाने लगते, तो उससे बढ़कर बेवकूफी और क्या होती? इस तरीके से जापान वाले नई भाषा तो सीखते, लेकिन नया ज्ञान न सीख पाते। हिंदुस्तान में तो आज हमारी महत्वाकांक्षा ही यह रहती है कि हमें किसी तरह कोई सरकारी नौकरी मिल जाय, या हम वकील, बैरिस्टर, जज, वगैरह बन जाएं। अंग्रेजी सीखने में हम बरसों बिता देते हैं, तो भी सर राधाकृष्णन या मालवीयजी महाराज के समान अंग्रेजी जानने वाले हमने कितने पैदा किए हैं? आखिर यह एक पराई भाषा ही न है ? इतनी कोशिश करने पर भी हम उसे अच्छी तरह सीख नहीं पाते। मेरे पास सैकड़ों खत आते रहते हैं। इनमें कई एमए पास लोगों के भी होते हैं। परंतु चूंकि वे अपनी भाषा में नहीं लिखते, इसलिए अंग्रेजी में अपने खयाल अच्छी तरह जाहिर नहीं कर पाते।

आमजनता नहीं समझ पाती आपकी बात : उन्होंने कहा कि इसलिए यहां बैठे-बैठे मैंने जो कुछ देखा, उसे देखकर मैं तो हैरान रह गया। जो कार्रवाई अभी यहां हुई, जो कुछ कहा या पढ़ा गया, उसे जनता तो कुछ समझ ही नहीं सकी। फिर भी हमारी जनता में इतनी उदारता और धीरज है कि वह चुपचाप सभा में बैठी रहती है और खाक समझ में न आने पर भी यह सोचकर संतोष कर लेती है कि आखिर हमारे नेता ही न हैं, कुछ अच्छी ही बात कहते होंगे। लेकिन इससे उन्हें लाभ क्या ? वह तो जैसी आई थी, वैसी ही खाली लौट जाती है। अगर आपको शक हो, तो मैं अभी हाथ उठवाकर लोगों से पूछूं कि यहां की कार्रवाई में वे कितना कुछ समझे हैं? आप देखिएगा कि वे सब कुछ नहीं', 'कुछ नहीं' कह उठेंगे। यह तो हुई आम जनता की बात। अब अगर आप यह सोचते हों कि विद्यार्थियों में से हर एक ने हर बात को समझा है, तो वह दूसरी बड़ी गलती है। आज से पच्चीस साल पहले जब मैं यहां आया था, तब भी मैंने यही सब बातें कहीं थी। आज यहां आने पर जो हालत मैंने देखी, उससे उन्हीं चीजों को दोहराने के लिए विवश हो गया।

विद्यार्थियों की शारीरिक स्थिति पर जताई चिंता : कहा कि "दूसरी बात जो मेरे देखने में आई, उसकी तो मुझे जरा भी आशा न थी। आज सुबह मैं मालवीय जी महाराज के दर्शन को गया था। बसन्तपंचमी का अवसर था, इसलिए सब विद्यार्थी भी वहां उनके दर्शनों को आए थे। मैंने उस वक्त भी देखा कि विद्यार्थियों को जो शिक्षा मिलनी चाहिए, वह उन्हें नहीं मिलती। जिस सभ्यता, मौन और व्यवस्था के साथ उन्हें चलना आना चाहिए, उस तरह चलना उन्होंने सीखा ही नहीं था। यह कोई मुश्किल काम नहीं, कुछ ही समय में सीखा जा सकता है। सिपाही जब चलते हैं, तो सिर उठाये, सीना ताने, तीर की तरह सीधे चलते हैं। लेकिन विद्यार्थी तो उस वक्त आड़े-टेढ़े, आगे-पीछे, जैसा जिसका दिल चाहता था, चलते थे; उनके उस चलने को चलना कहना भी शायद मुनाशिब न हो। मेरी समझ में तो इसका कारण भी यही है कि हमारे विद्यार्थियों पर अंग्रेजी जबान का बोझ इतना पड़ जाता है, कि उन्हें दूसरी तरफ सर उठाकर देखने की फुरसत नहीं मिलती। यही कारण है कि उन्हें जो वस्तुतः सीखना चाहिए, वे सीख नहीं पाते।

विश्वविद्यालय की अपनी विशेषता चाहिए : महात्मा गांधी ने कहा कि “एक बात और पश्चिम के हर एक विश्वविद्यालय की अपनी एक-न-एक विशेषता होती है। कैम्ब्रिज और आक्सफर्ड को ही लीजिए। इन विश्वविद्यालयों को इस बात का अभिमान है कि इनके हर एक विद्यार्थी पर इनकी अपनी विशेषता की छाप इस तरह लगी रहती है कि वे तुरन्त पहचाने जा सकते हैं। हमारे देश के विश्वविद्यालयों की अपनी ऐसी कोई विशेषता होती ही नहीं। वे तो पश्चिमी विश्वविद्यालयों की एक निस्तेज और निष्प्राण नकल-भर हैं। अगर हम उनको पश्चिमी सभ्यता का सिर्फ सोख्ता या स्याही-सोख कहें, तो शायद बेजाय न होगा। आपके इस विश्वविद्यालय के बारे में अक्सर यह कहा जाता है कि यहां शिल्प शिक्षा और यन्त्र-शिक्षा का यानी इंजीनियरिंग और टेक्नालोजी का देशभर में सबसे ज्यादा विकास हुआ है, और इनकी शिक्षा का अच्छा प्रबन्ध है। लेकिन इसे मै यहां की विशेषता मानने को तैयार नहीं। तो फिर इसकी विशेषता क्या हो ? मैं इसका एक उदाहरण आपके सामने रखना चाहता हूं। यहां जो इतने हिन्दू विद्यार्थी हैं, उनमें से कितनों ने मुसलमान विद्यार्थियों को अपनाया है ? अलीगढ़ के कितने छात्रों को आप अपनी ओर खींच सके हैं ? दरअसल आपके दिल में चाह तो यह पैदा होनी चाहिए कि आप तमाम मुसलमान विद्यार्थियों को यहां बुलायेंगे, और उन्हें अपनायेंगे।

प्राचीन संस्कृति को जानने के लिए पढ़ाएं धर्मग्रंथ : बापू ने कहा कि लोकमान्य तिलक के हिसाब से हमारी सभ्यता दस हजार बरस पुरानी है। बाद के कई पुरातत्वशास्त्रियों ने उसे इससे भी पुरानी बताया है। इस सभ्यता में अहिंसा को परम धर्म माना गया है। अतः इसका कम-से-कम एक नतीजा तो यह होना चाहिए कि हम किसी को अपना दुश्मन न समझें। वेदों के समय से हमारी यह सभ्यता चली आ रही है। जिस तरह गंगा जी में अनेक नदियां आकर मिली हैं, उसी तरह इस देश की संस्कृति-गंगा में भी अनेक संस्कृति रूपी सहायक नदियां आकर मिली हैं। यदि इन सबका कोई सन्देश या पैगाम हमारे लिए हो सकता है, तो यही कि हम सारी दुनिया को अपनायें और किसी को अपना दुश्मन न समझें। मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि वह हिन्दू विश्वविद्यालय को यह सब करने की शक्ति दे। यही इसकी विशेषता हो सकती है। सिर्फ अंग्रेजी सीखने से यह काम नहीं हो पायेगा। इसके लिए तो हमें अपने प्राचीन ग्रन्थों और धर्मशास्त्रों का श्रद्धापूर्वक यथार्थ अध्ययन करना होगा, और यह अध्ययन हम मूल ग्रन्थों के सहारे ही कर सकते हैं।

मालवीयजी से सीखिए सादगी का आचरण : महात्मा गांधी ने कहा कि अंत में एक बात मुझे और कहनी है। आप लोग रहते तो महलों में हैं, क्योंकि मालवीयजी महाराज ने आपके लिए महलों जैसे छात्रावास वगैरह बनवा दिए हैं। पर इसका यह मतलब नहीं कि आप महलों में रहने के आदी बन जावें। आप मालवीयजी महाराज के घर जाइये और देखिए, वहां आपको इनमें से कोई चीज न मिलेगी। न ठाट-बाट होगा, न साजो-सामान और न किसी तरह का कोई दिखावा। उनसे आप सादगी और गरीबी का पाठ सीखिए। आप यह कभी न भूलिए कि हिन्दुस्तान एक गरीब देश है और आप गरीब मां-बाप की सन्तान हैं। उनकी मेहनत का पैसा यों ऐशो-आराम में बरबाद करने का आपको क्या हक है ? ईश्वर आपको चिरंजीवी करे और ऐसी सद्बुद्धि दे कि जिससे आप मालवीयजी महाराज की त्यागशीलता, आध्यात्मिकता और सादगी से अपने जीवन को रंग सकें और आज जो कुछ मैंने आपसे कहा है, उस पर समझदारी के साथ आचरण कर सकें।'

(सौजन्य से- डा. विनोद कुमार जायसवाल असिस्टेंट प्रोफेसर प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग, बीएचयू, शिवकुमार शौर्य, संस्कृति विभाग उत्तर प्रदेश सरकार, लखनऊ।

संदर्भ- उत्तर प्रदेश राजकीय अभिलेखागार, लखनऊ, गृह पुलिस विभाग , फाइल नं0- 16/15 , वर्ष- 21/01/1942)


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