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Independence Day : वाराणसी के 92 वर्षीय जगन्नाथ प्रसाद गांव के बाहर क्रांतिकारियों संग करते थे बैठक

जगन्नाथ प्रसाद बताते हैं जब देश आजाद हुआ तो मेरी अवस्था लगभग 22 साल की थी। हम लोग संपन्न परिवार से थे। हमारा परिवार स्वतंत्रता संग्राम में बढ़चढ़कर हिस्सा ले रहा था।

By Saurabh ChakravartyEdited By: Published: Sat, 15 Aug 2020 12:26 PM (IST)Updated: Sat, 15 Aug 2020 07:39 PM (IST)
Independence Day : वाराणसी के 92 वर्षीय जगन्नाथ प्रसाद गांव के बाहर क्रांतिकारियों संग करते थे बैठक
Independence Day : वाराणसी के 92 वर्षीय जगन्नाथ प्रसाद गांव के बाहर क्रांतिकारियों संग करते थे बैठक

वाराणसी [वंदना सिंह]। आजादी सही मायने में बड़ी तपस्या और संघर्ष से मिली थी। उस दिन पूरा रामनगर खुशियों से झूम रहा था। मैं युवा हो चुका था और हाथों में झंडा लिए भारत माता की जय का नारा लगाते हुए गलियों में दौड़ रहा था। ऐसा लग रहा था मानों कितनी खुशियां मिल गईं थीं जो संभालेे नहीं संभल रही थीं। घरों में महिलाएं ढोलक पर गीत गा रही थीं। ये बातें  बनारस में हैंडलूम के भीष्मपितामह कहे जाने वाले 92 वर्षीय जगन्नाथ प्रसाद ने आजादी के दिन को याद करते हुए बताईं। जगन्नाथ प्रसाद रामनगर के साहित्यनाका के निवासी हैं। इनके यहां पर कई पीढिंयों से बनारसी साड़ी का काम होता आया है जो वर्तमान में भी चल रहा है। जगन्नाथ प्रसाद बताते हैं जब देश आजाद हुआ तो मेरी अवस्था लगभग 22 साल की थी। हम लोग संपन्न परिवार से थे। हमारा परिवार स्वतंत्रता संग्राम में बढ़चढ़कर हिस्सा ले रहा था। पिता लालता प्रसाद गांव के बाहर क्रांतिकारियों संग बैठक करते थे। हर बैठक में पिताजी मिठाई लेकर जाते थे। मैं बचपन से ही उनके साथ इन बैठकाें में जाता था। चूंकि हम बच्चों पर अंग्रेज शक नहीं कर पाते थे तो चोरी छिपे हम लोग क्रांतिकारियों की मदद करने में सफल हो जाते थे। हमारा परिवार काम बांटकर करता था जैसे घर के बड़े लोग सीधे तौर पर अंग्रेजों से लोहा लेते थे और छोटे जेल गए क्रांतिकारियों को भोजन और सूचनाएं पहुंचाने का काम करते थे।

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जगन्नाथ प्रसाद ने बताया एक खास बात ये थी कि उस समय दो समुदाय अच्छी भूमिका में थे बुनकर व बीड़ी बनाने वाले। चूंकि ये लोग स्वतंत्र रूप से काम करते थे तो अंग्रेजों का इन पर कोई दबाव नहीं था। इनकी संख्या भी ज्यादा थी। वर्ष 1942 से अंग्रेजों ने काफी दमन शुरू किया। महिलाअेां व बुनकरों पर भी अत्याचार करते थे। रास्ते से महिलाओं को उठाकर ले जाते थे। अत्याचार की कोई सीमा नहीं थी। मेरे परिवार में भी कई लोग जेल गए थे। अंग्रेजों ने हमारे पिता, चाचा को जेल में बंद कर दिया था, हमें भी मारा था।  मगर हमारी लड़ाई जारी रही। उस दौर में जो क्रांतिकारी जेल गए उनके लिए महिलाएं  भोजन तैयार कर रही थी और हम लोग खाना लेकर जाते थे। जिस दिन देश आजाद हुआ युवाओं व बच्चों की टोली हाथों में तिरंगा झंडा लिए गलियों में दौड़ रही थी मैं भी उसमें शामिल था। घरों में पकवान बन रहे थे। पिताजी ने खूब मिठाई बंटवाई ये दौर कई हफ्तों तक चलता रहा। सबका डर खत्म हो गया था। जगन्नाथ प्रसाद की आज पांचती पीढ़ी भी बनारसी साड़ी के काम को आगे बढ़ा रही है।

पदमश्री डा रजनी कांत बताते हैं आजादी की लड़ाई में जगन्नाथ प्रसाद व उनके परिवार ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। वहीं  वर्ष 1986 से 88 तक विश्वकर्मा अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनी फेस्टिवल ऑफ इंडिया के कई देशों में इनके बनाए रेशमी वस्त्र प्रदर्शित किए गए। कई राजपरिवार जैसे बड़े उघमी इनकी बनाई साडियां पसंद करते हैं। थाईलैंड के राजकुमार के ब्रोकेड वस्त्रों पर असली सोने चांदी की जरी का प्रयोग करके जगन्नाथ प्रसाद ने अपने पुत्र विजय के साथ मिलकर  2001 में उत्कृष्ट बुनाई कार्य किया।  आज भी उस डिजाइन का नमूना हैंडलूम के भीष्म पितामह जगन्नाथ प्रसाद के पास मौजूद है।

यह गर्व की बात है कि जगन्नाथ प्रसाद आज भी जीआई पंजीकृत बनारस ब्रोकेड और साड़ी की विरासत को  आगे बढ़ा रहे है। लगातार इस मंदी और कोरोना के संक्रमण काल में भी वह हैंडलूम के कारोबार को नई संजीवन दे रहे है और लगभग 150 से अधिक हथकरघा के माध्यम से कुल 500 हैंडलूम बुनकरों को साथ में जोड़े हुए देश की बौद्धिक संपदा को आगे बढ़ा रहे है। बनारसी साड़ी की जितनी भी प्राचीन विधाएं और परम्परागत तरीके, मोटिफ्स, डिजाइन और रंगो का प्रयोग होता है वह लगभग सभी इनके यहां आज भी देखी जा सकती हैं।


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