काशी विद्यापीठ के सौ साल : विद्यापीठ के लिए प्रेमचंद ने सरकारी नौकरी से दिया था त्यागपत्र
काशी विद्यापीठ की पहचान ईंट-पत्थर के भवनों से नहीं है बल्कि इसका महत्व स्थापना के उद्देश्यों विचारधाराओं कार्यप्रणाली संस्था के योग्य देशभक्तों जुझारू अध्यापकों व छात्रों से हैं। 1921 में विद्यापीठ की स्थापना के बाद कई लोग देश को गुलामी से मुक्त कराने के लिए नौकरी छोड़कर संस्था से जुड़े।
वाराणसी, जेएनएन। महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ की पहचान ईंट-पत्थर के भवनों से नहीं है, बल्कि इसका महत्व स्थापना के उद्देश्यों, विचारधाराओं, कार्यप्रणाली, संस्था के योग्य देशभक्तों, जुझारू अध्यापकों व छात्रों से हैं। वर्ष 1921 में विद्यापीठ की स्थापना के बाद कई लोग देश को गुलामी से मुक्त कराने के लिए नौकरी छोड़कर संस्था से जुड़े। इन्हीं महान विभूतियों में कथाकार मुंशी प्रेमचंद भी शामिल हैं।
असहयोग आंदोलन के दौरान प्रेमचंद ने 23 जून 1921 को स्कूल के इंस्पेक्टर पद की सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया। इस्तीफा देने के चार माह बाद वह कानपुर स्थित मारवाड़ी विद्यालय के हेडमास्टर हो गए। हालांकि विद्यालय के मैनेजर से उनकी कुछ अनबन हो गई और 22 फरवरी 1922 को वहां से भी इस्तीफा देकर काशी आ गए। यहां बाबू शिवप्रसाद गुप्त से उन्हें हर प्रकार की सहायता मिली और उन्हें काशी विद्यापीठ में हेडमास्टरी की नौकरी मिल गई। उस समय विद्यापीठ का माहौल पूर्ण रूप से राजनीतिक था। यहां के लोग राजनीतिक सम्मेलनों में भाग लेना अधिक पसंद करते थे। इसके अलावा विद्यापीठ से राजनीतिक व साहित्यिक पत्रिकाओं का प्रकाशन व संपादन भी होता था। प्रेमचंद को विद्यापीठ काफी रास आया। डा. संपूर्णानंद के जेल जाने के बाद उन्होंने 'मर्यादा नामक पत्रिका का संपादन किया। दरअसल प्रेमचंद राजनीतिज्ञ नहीं शुद्ध रूप से साहित्यकार थे। ऐसे में प्रेमचंद्र का काशी विद्यापीठ से वैचारिक नाता रहा है। काशी विद्यापीठ और प्रेमचंद के उद्देश्यों में काफी समानता थी। दोनों गांधीवादी चिंतन की उपज थे। विद्यापीठ की स्थापना बगैर सरकारी अनुदान के हुई थी। वहीं प्रेमचंद ने सरकारी नौकरी छोड़ी और राय साहब की उपाधि नहीं ली। इस प्रकार काशी विद्यापीठ की पहचान जहां गांधी जी हैं। वहीं प्रेमचंद की पहचान भी गांधी से ही है। वह साहित्य के गांधी हैं।
विद्यापीठ से जुड़कर बहुत खुश थे प्रेमचंद
प्रेमचंद काशी विद्यापीठ से जुड़कर बहुत खुश थे। उनके जुडऩे के बाद एक साल में विद्यापीठ का महत्व इतना बढ़ गया कि प्रेमचंद जैसे महान लेखक व कथाकार उनसे जुड़कर खिदमत का मौका पाकर खुद को धन्य समझने लगते थे।
स्वराज के बिना देश का कल्याण नहीं
वही प्रेमचंद की लेखनी सदैव स्वराज के लिए उठती रही। वह स्वराज के फायदे जैसे निबंध लिखते थे जिसमें उन्होंने लिखा है कि स्वराज्य के बिना देश का कल्याण नहीं हो सकता है। केवल असहयोग आंदोलन से हम स्वराज तक नहीं पहुंच सकते हैं। वह स्वावलंबन को स्वराज का मुख्य साधन मानते थे। महान कथाकार धनपतराय श्रीवास्तव (प्रेमचंद) का जन्म 31 जुलाई 1880 में वाराणसी के लमही ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम अजायबराय व माता का नाम आनंदी देवी था। ङ्क्षहदी साहित्य का पथ आलोकित कर वह आठ अक्टूबर 1936 इस दुनिया से सदा-सदा के लिए विदा हो गए।