शिक्षक, खिलाड़ी फिर निर्दलीय विधायक बन रचा था इतिहास
मोटरसाइकिल से करते थे प्रचार घर-घर जाकर लोगों से करते थे व्यक्तिगत मुलाकात पूर्व विधायक इंद्रभद्र सिंह की पुण्यतिथि आज
सुलतानपुर: शिक्षक, वालीबाल खिलाड़ी, जिले के दिग्गज राजनीतिज्ञों में शुमार इंद्रभद्र सिंह ने निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में इसौली विधानसभा सीट से चुनाव जीतकर इतिहास रचा था। सभी दलों के लोग उनका सम्मान करते थे। शुक्रवार को उनकी 23वीं पुण्यतिथि पर निज आवास मायंग में जिले की नामचीन हस्तियां श्रद्धांजलि देंगी।
केएनआइपीएसएस में बतौर खेल शिक्षक इंद्रभद्र वालीबाल के नामचीन खिलाड़ी थे। उन्होंने 1989 में जनता दल के निशान पर पहली बार इसौली से विधानसभा का चुनाव लड़ा और विजयी हुए। 1993 में जब उन्हें पार्टी ने टिकट नहीं दिया तो आजाद उम्मीदवार के रूप में ताल ठोंक दी और अपनी जमीनी पकड़ के बूते विजय हासिल की। क्षेत्रवासियों के लिए 21 जनवरी का दिन पीड़ा दायक है। कारण इसी दिन दुस्साहसिक अपराधियों के हमले में पूर्व विधायक असमय काल कवलित हो गए थे।
हमहू चुनाव लड़त बाटी, देखे रहेव:
स्व. सिंह की गिनती मिलनसार नेताओं में की जाती है। क्षेत्र की जनता उन्हें सिर-आंखों पर बिठाती थी। वे अपना प्रचार मात्र दो लोगों के साथ बाइक से करते थे। सूची बनाकर गांवों में घर-घर जाकर बस इतना बताते थे कि यहि बार हमहू चुनाव लड़त बाटी, देखे रहव। इतनी ही बात लोगों के लिए काफी होती थी।
समाजसेवा में नहीं था कोई सानी:
सच्ची समाजसेवा में भी पूर्व विधायक का कोई सानी नहीं था। हर किसी को संतुष्ट करना उन्हें बखूबी आता था। गरीबों की मदद तो खुलेदिल से करते ही थे, साथ ही गांव के छोटे झगड़ों को इस कदर सुलझाते थे कि दोनों पक्ष हंसते हुए उनके दरवाजे से जाते थे।
बेटे संभाल रहे विरासत:
स्व. इंद्रभद्र सिंह की राजनीतिक विरासत को पुत्र चंद्रभद्र सिंह व यशभद्र सिंह आगे बढ़ा रहे। चंद्रभद्र दो बार क्षेत्र की रहनुमाई कर चुके हैं। वहीं, यशभद्र मौजूदा समय में ब्लाक प्रमुख हैं।
फ्लैश बैक: पहले दस-बीस हजार में निपट जाता था चुनाव
सुलतानपुर: पहले चुनाव का आधार ईमानदारी व जनसामान्य के लिए किए गए कार्य व उसके अ<स्हृद्द-क्तञ्जस्>छे परिणामों से हुआ करता था। चुनावों में राजकोष पर अनावश्यक भार न पड़े, यह प्रत्याशी या राजनीतिक दल विचार करते थे। अब सभी धारणाएं बदल चुकी हैं। अब धन व बल को महत्व दिया जा रहा है। यह कहना है संत तुलसीदास महाविद्यालय के सेवानिवृत्त संस्कृत विभागाध्यक्ष डा. सुशील कुमार पांडेय का।
डा. पांडेय कहते हैं कि भारत में लोकतंत्र व चुनाव की प्रक्रिया बेहद पुरानी है। पहले चुनाव लड़ने के इ<स्हृद्द-क्तञ्जस्>छुक लोग मेहनत करते थे, लोगों के सुख-दुख में हिस्सा लेते थे। घर-घर जाते थे और अपनी बात रखते थे। हारने के बाद भी विद्वेष की भावना नहीं रहती थी। पूरा चुनाव 10-20 हजार रुपये में हो जाता था। समर्थक बगैर किसी स्वार्थ के प्रचार करते और अल्पाहार लेकर दिन गुजार देते थे। अब धन बल से मजबूत प्रत्याशियों को चुनाव मैदान में उतारने के प्रवृत्ति हावी है, जो लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है। क्षेत्र की रहनुमाई करने वाला ऐसा होना चाहिए जो सभी के मौके पर खड़ा रहे। पुरानी यादें ताजा करते हुए डा. पांडेय ने बताया कि पहले चुनावी प्रक्रिया धन बल व जोर-जबरदस्ती की भावना से मुक्त थी।
इसका उदाहरण 1962 में बलरामपुर का वह चुनाव, जिसमें पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने वहां के साधारण व बिना तामझाम वाले चुनावी मंच से संबोधन व प्रचार किया था।