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बोरियों की 'डोर' बनी रोजी-रोटी

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By JagranEdited By: Published: Thu, 21 Feb 2019 11:24 PM (IST)Updated: Thu, 21 Feb 2019 11:24 PM (IST)
बोरियों की 'डोर' बनी रोजी-रोटी
बोरियों की 'डोर' बनी रोजी-रोटी

संजीव गुप्त महोली (सीतापुर) :

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अब रात की दीवार को ढाना है जरूरी, ये काम मगर मुझसे अकेले नहीं होगा। शहरयार की ये लाइनें कस्बे की उन महिलाओं पर सटीक बैठती हैं जिन्होंने सामाजिक बंदिशों और गरीबी के घनघोर अंधेरों में भी किसी के आगे हाथ न फैलाकर मेहनत की रोटी खाने में यकीन किया। अनुसूचित जाति की यह महिलाएं बेरोजगारी और गरीबी का रोना रोने वालों के लिए आईना हैं। खास बात यह है ये महिलाएं अपने समाज की अन्य महिलाओं को भी प्लास्टिक की बोरियों के रेशों से रस्सी बनाना सिखा रही हैं ताकि गरीबी के अंधेरों को मिटा सकें।

कस्बे के अवस्थी टोला में करीब एक दर्जन मकान अनुसूचित जाति के लोगों के हैं। इन घरों की महिलाएं बाजार से फटी हुई प्लास्टिक की बोरियां खरीदती हैं और घर के बच्चों के साथ बोरियों का एक-एक रेशा निकालकर उसकी रस्सी बनाती हैं। इस रस्सी को वो कस्बे व गांवों की साप्ताहिक बाजारों में बेंचती हैं। मेहनतकश गीता ने बताया कि पहले वो सिल-बट्टा का काम करती थीं लेकिन ये धंधा फ्लाप हो गया। लोग उसे घरों में साफ-सफाई के लिए भी नहीं लगाते थे। परिवार भुखमरी की कगार पर पहुंच गया। लेकिन उन्होंने बाजार में हाथ न फैलाकर मेहनत की रोटी खाना पसंद किया। उन्होंने दुकानों से कम कीमत पर कटी-फटी निष्प्रयोज्य बोरियां खरीदी और उसके रेशों से रस्सी बनाना शुरू किया। धीरे-धीरे जीवन की गाड़ी पटरी पर आ गई। गीता ने अपने समाज की परेमा, राखी, पायल, काजल को भी प्लास्टिक के रेशों से रस्सी बनाना सिखाया है। अब कंजर समाज की सभी महिलाएं रेशों से रस्सी बनाती हैं। मुनाफा से ज्यादा मेहनत

गीता ने बताया कि बाजार से 20 रुपये किलो की दर से निष्प्रयोज्य बोरियां खरीदती हैं। जिसमें करीब 45 रुपये की रस्सी बन जाती है। रस्सी बनाने में घर के सभी लोग दिन रात जुटते हैं तब जाकर कहीं रुपये हाथ में आते हैं। समाज की बेहतरी के लिए इस समाज के सभी बच्चे पड़ोस के सरकारी स्कूल में पढ़ते भी हैं। राशन कार्ड से खाने भर को गल्ला भी मिल जाता है।


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