रेत के सहारे परिवार के जीविकोपार्जन की जद्दोजहद
डुमरियागंज समेत बगहवा घाट खजुहा घाट मझारी नेबुआ पेड़ारी भड़रिया आदि प्रमुख स्थानों पर राप्ती नदी की खाली रेत पर करीब पचास एकड़ में खीरे की खेती की जाती है। जिसमें पूंजी तो कम लगती है मगर बेहतर फसल उत्पादन में कड़ी मेहनत करनी पड़ती है।
सिद्धार्थनगर : गर्मी व तेज धूप के बीच खीरा फसल की देखभाल कर रहे किसान रेत के सहारे ही अपनी जिदगी को संवारने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं। पांच माह की कड़ी मेहनत से जो कुछ भी मिल जाता है, उसी से परिवार का जीविकोपार्जन चलता है, इसके बाद फिर दैनिक मजदूरी पर निर्भर होना पड़ता है।
डुमरियागंज समेत बगहवा घाट, खजुहा घाट, मझारी, नेबुआ, पेड़ारी, भड़रिया आदि प्रमुख स्थानों पर राप्ती नदी की खाली रेत पर करीब पचास एकड़ में खीरे की खेती की जाती है। जिसमें पूंजी तो कम लगती है, मगर बेहतर फसल उत्पादन में कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। खीरे की खेती करने वाले संजय गौतम, नर्दम, राजकुमार व दुर्गेश साहनी का कहना है यह पुश्तैनी खेती है। एक बीघे खेती में करीब पांच हजार की पूंजी लगती है। मगर मेहनत काफी अधिक करनी होती है। दिन भर पौधों की देखभाल व सिचाई के लिए दो लोग लगे रहते है। यदि बेहतर फसल हो जाए तो सीजन में करीब 25 से 30 हजार रुपये प्रति बीघा तक आमदनी हो जाती है। यदि संसाधन उपलब्ध हो जाएं, तो फिर खेती आसान हो सकती है। लोगों ने बताया कि नाम मात्र कृषि योग्य भूमि होने की वजह से आजीविका के लिए यह खेती सबसे सर्वोत्तम है।
प्रशासन से की कार्यशाला की मांग
खीरे की बेहतर पैदावार के कृषि की नवीनतम जानकारियों से अंजान लोग परंपरागत खेती पर ही निर्भर है, जिससे उत्पादन में कोई खास प्रभाव नहीं देखने को मिलता। किसानों का कहना है कि विभाग अथवा प्रशासन द्वारा खीरे की खेती को बढ़ावा देने के लिए कोई कार्यशाला का आयोजन अब तक नहीं कराया गया। जिससे उसके कुशल प्रबंधन व अच्छे बीजों के बारे में सटीक जानकारी नहीं मिल पाती है।
कृषि वैज्ञानिक डा. एस के मिश्रा का कहना है कि यदि खीरे के पौधों पर टपक विधि से बूंद-बूंद पानी जड़ के पास टपका कर सिचाई की जाए तो मजदूरों की संख्या में भी कमी होगी, लागत कम लगेगी और लाभ अच्छा मिलेगा। किसान यदि उद्यान विभाग से संपर्क करें, तो उन्हें छूट पर इस विधि द्वारा सिचाई संयत्र प्राप्त हो सकता है।