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आज भी जेहन में ¨जदा है बंटवारे का खौफ

राघवेंद्र शुक्ल, सम्भल : जीवन की शतकीय पारी खेलने के पड़ाव पर पहुंच चुके सम्भल के सरथल चा

By JagranEdited By: Published: Wed, 15 Aug 2018 12:47 AM (IST)Updated: Wed, 15 Aug 2018 12:47 AM (IST)
आज भी जेहन में ¨जदा है बंटवारे का खौफ
आज भी जेहन में ¨जदा है बंटवारे का खौफ

राघवेंद्र शुक्ल, सम्भल : जीवन की शतकीय पारी खेलने के पड़ाव पर पहुंच चुके सम्भल के सरथल चौकी निवासी दंपती ने देश के विभाजन का दंश भी झेला और आजादी की पहली सुबह भी देखी। आज भी उनके जेहन में सरहद की दिल दहलाने वाली दास्तान जीवंत है। कहते हैं कि आजादी की पहली सुबह खुशी तो लेकर आई थी, लेकिन इस बात की चिंता भी थी कि अपना सबकुछ छोड़कर आने के बाद जीवन की गाड़ी आगे कैसे चलेगी।

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शहर के सरथल चौकी पर रहने वाले ओम प्रकाश मोंगिया का जन्म 14 मई 1924 को पाकिस्तान के मुल्तान जिला अंतर्गत तहसील खानेवाल में हुआ था। जीवन के 22 से 23 साल पाकिस्तान में गुजारने के बाद सन 1947 में जब ¨हदुस्तान के विभाजन की नींव पड़ी तो मानों दोनों देशों में भूचाल सा आ गया। ओम प्रकाश मोंगिया अपने पिता वीरभान और मां लक्ष्मी बाई, चार भाइयों रामप्रकाश, जीवनदास, इंद्रजीत तथा गंगाराम को साथ लेकर भारत की ओर निकल पड़े। उस समय न भारत आजाद था न पाकिस्तान। दोनों मुल्क एक थे और सरहद भी एक थी। चूंकि बंटवारे की नींव पड़ चुकी थी और इन लोगों के पास निर्णय लेने की समय कम था। नतीजतन जल्दबाजी भरे कदम में अपना कारोबार, घर सब कुछ छोड़ यह परिवार भी अमृतसर की ओर निकल पड़े। खानेवाल तहसील से मुल्तान पहुंचने के बाद ट्रेन का सफर करते हुए यह परिवार किसी तरह अमृतसर आ गया। रास्ते में मिले दर्द व परेशानियां आज भी इनके जेहन में ताजा हैं। भारत पहुंचने के बाद शरणार्थी शिविरों के जरिए अमृतसर, जालंधर, पानीपत होते हुए यह परिवार हरिद्वार में गंगा किनारे पहुंच गया। आजादी की पहली सुबह हरिद्वार में ही हुई। आजादी की खुशी तो इनके मन में थी लेकिन पेट की ¨चता भी सताए जा रही थी, क्योंकि अपना सब कुछ गंवा चुके थे। हरिद्वार में पता चला कि सम्भल एक ऐसी जगह है जहां कम पैसे में गुजारा हो सकता है। मां बाप के साथ पांचों भाई सम्भल आए और यहां मुहल्ला कोट स्थित गोपाल धर्मशाला में जगह पाई। ¨जदगी धीरे-धीरे गुजरती रही और यह परिवार यहां किराए के मकान में रहने लगा। बांस के डंडे का व्यवसाय कर परिवार भी चलने लगा। आज रामप्रकाश, इंद्रजीत और गंगाराम दुनिया में नहीं है लेकिन ओमप्रकाश के मन में आज भी अपने दुर्दिनों की यादें ¨जदा हैं।

बातचीत के दौरान 94 साल के ओमप्रकाश कहते हैं कि बंटवारे की दास्तां को भुला पाना आसान नहीं है। स्वतंत्रता दिवस की खुशियों को देख आज भी मन प्रफुल्लित हो उठता है। जब हम पाकिस्तान में थे तब आजादी के पहले की जो तस्वीर वहां थी वह किसी दर्दनाक हादसे से कम नहीं थी।

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पाकिस्तान से भारत आकर बसी सत्यवती से की शादी

जिस प्रकार ओम प्रकाश मोंगिया का परिवार विभाजन के साथ ही भारत आ गया। उसी प्रकार पाकिस्तान के लाहौर की रहने वाले सत्यवती भी अपने परिवार के साथ बंटवारे के बाद भारत आ गईं। इनका परिवार पानीपत में बस गया। ओमप्रकाश के पिता ने इनका रिश्ता सत्यवती के साथ कर दिया। विवाह बंधन में बंध गए। आज वह 90 साल की हैं। सत्यवती कहती हैं कि विभाजन के समय मेरी उम्र महज 16 साल रही होगी। मुझे आज भी याद है कि जब हमने भारत जाने की तैयारी की तो मैं अपना संदूक जिसमें जेवर व नकदी रखे थे ले जाने लगी। पिता ने मना किया कि इसे ले जाकर क्या करोगी। सुरक्षित भारत पहुंचना जरूरी है। फिर सारा सामान हमने घर के पास कुएं में ही डाल दिया। अपना मकान, अपनी जमीन को आखिरी बार देखा और पैदल ही निकल पड़े। किसी तरह लाहौर पहुंचने के बाद वहां से ट्रक के जरिए किसी नजदीकी रेलवे स्टेशन पर पहुंचे। रास्ते में कहीं ट्रेन रुकी तो चार दिन तक वहीं खड़ी रही। हम भूखे प्यासे वहीं पड़े रहे। फिर किसी तरह यह ट्रेन भारत पहुंची। यहां से हम अमृतसर आए और शरणार्थी कैंप में रहने लगे। फिर जालंधर और कुरुक्षेत्र के बाद मेरा परिवार पानीपत आ गया।


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