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सांस्कृतिक विरासत को संजोने के लिए उठाए कदम

लोककला और संस्कृति को सहारनपुर के ग्रामीण क्षेत्रों में खासी पहचान मिली है। सांझी गोवर्धन अहोई अष्टमी आदि पर यहां के गांवों की कला अपनी पहचान बनाए हुए हैं। महानगर के अलावा ग्रामीण क्षेत्रों की कई पुरानी हवेलियों में भित्ति चित्र यहां की कला के नायाब नमूने हैं।

By JagranEdited By: Published: Mon, 24 Jan 2022 10:43 PM (IST)Updated: Mon, 24 Jan 2022 10:43 PM (IST)
सांस्कृतिक विरासत को संजोने के लिए उठाए कदम
सांस्कृतिक विरासत को संजोने के लिए उठाए कदम

सहारनपुर, जेएनएन। लोककला और संस्कृति को सहारनपुर के ग्रामीण क्षेत्रों में खासी पहचान मिली है। सांझी, गोवर्धन, अहोई अष्टमी आदि पर यहां के गांवों की कला अपनी पहचान बनाए हुए हैं। महानगर के अलावा ग्रामीण क्षेत्रों की कई पुरानी हवेलियों में भित्ति चित्र यहां की कला के नायाब नमूने हैं। प्रसिद्ध कलाकार डा. रामशब्द सिंह ने सहारनपुर की सांस्कृतिक विरासत को संजोने और प्रोत्साहित करने के लिए समय-समय पर कदम उठाए हैं। राज्य ललित कला अकादमी ने उनके चित्रों को अहम स्थान दिया है।

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सहारनपुर की लोक कलाओं को पीढ़ी दर पीढ़ी एक दूसरे को सौंपते हुए आगे बढ़ने की जिम्मेदारी प्रबुद्ध लोगों की है। समय-समय पर यहां की लोककला को जीवंत करने के साथ ही उसे नवजीवन को नया आयाम देने का काम किया। गांव ठोला और पिजौरा की सांझी कला, जैनपुर की गोर्वधन पूजा की कला, करवा चौथ तथा दशहरा पर बनाए जाने वाले चित्रों में यहां की सांस्कृतिक विरासत की झलक परिलक्षित होती है। जेवी जैन कालेज के पूर्व चित्रकला विभागाध्यक्ष डा. रामशब्द सिंह ने कालेज में शिक्षण कार्य के दौरान सहारनपुर की सांस्कृतिक विरासत को सहेजने के लिए टीम बनाकर काम किया। वह बताते हैं कि जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में शादी पर चौक पूजन, रक्षाबंधन पर दरवाजों के दोनों और सोन बनाने के साथ ही नवरात्र में सांझी बनाने के साथ ही दशहरे पर पूजन के लिए कलाकृति बनाई जाती है। वह बताते हैं कि गांव कोटा की पुरानी हवेली और मंदिरों के भित्ति चित्र सैकड़ों वर्ष पुराने हैं, जो रखरखाव के अभाव में धीरे-धीरे खराब हो रहे हैं। इसके अलावा शहर के पुराने क्षेत्रों में कई ऐसी पुरानी हवेली हैं, जिनमें नायाब कलाकारी के नमूने आज भी यदा-कदा मिल जाते हैं। इस प्रकार की चित्रकारी से यह आभास होता है कि पुराने समय में यहां की कला कितनी अधिक समृद्ध थी और उसे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाने का काम लोग बखूबी करते थे। दीवारों पर रंगों से बने डिजाइन आज भी पुरानी यादों को संजोए हैं। डा. रामशब्द सिंह बताते हैं लोक रीतिरिवाज का भारतीय संस्कृति में हमेशा से ही महत्वपूर्ण स्थान रहा है। घर में होने वाली सत्यनारायण कथा के पूर्व जमीन को गाय के गोबर से लीपकर उस पर सूखे आटे से चौक पूरा जाता है। दीपावली के दूसरे दिन तालाब के किनारे जमीन को साफ कर घरों से लाए गए ताजे गोबर से गोवर्धन की आकृति बनाई जाती है। गेहूं के डंठल से पंखा आदि बनाती हैं। बच्चों के खेलने के लिए खिलौने तथा हाथी घोड़ा बनाते हैं। बच्चे उन सब को बड़ी उत्सुकता से देखते हैं। वह बताते हैं कि तीज त्यौहार में उत्सव पर जो लोकचित्र बनाए जाते हैं, उसी से जुड़े गीत गाए जाते रहे हैं। उन्होंने लोककला चित्र में गीतों का प्रयोग किया गया है। राज्य ललित कला अकादमी संस्कृति विभाग द्वारा लोक रीति रिवाज पुस्तक में डा. रामशब्द सिंह के चित्र और उनकी लोक कलाओं से संबंधित विस्तृत आलेख प्रकाशित किए गए हैं।


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