गुमनामी में खो गए हैं अब देशी फ्रिज
गंगोह में मिट्टी की महक लुप्त होती जा रही है। मिट्टी के बर्तनों की उपेक्षा शहरों ही नहीं गांव व कस्बों में भी हो गई है। यही कारण है कि अब यह व्यवसाय घाटे का सौदा हो गया है।
सहारनपुर, जेएनएन। गंगोह में मिट्टी की महक लुप्त होती जा रही है। मिट्टी के बर्तनों की उपेक्षा शहरों ही नहीं गांव व कस्बों में भी हो गई है। यही कारण है कि अब यह व्यवसाय घाटे का सौदा हो गया है। शहर और गांव-गांव में कुम्हार मिट्टी के बर्तन बनाकर अपने पूरे परिवार का पेट भर लेते थे। तीज-त्यौहार और विवाह आदि समारोह के अलावा शुद्धता के लिए मिट्टी के पात्रों का प्रयोग घरों मे भी होता था। शहर या गांव में ऐसा कोई ही घर होता होगा, जिसमें गर्मी के मौसम में घड़े और सुराही का प्रयोग न किया जाता रहा हो। गर्मी का मौसम आते ही घड़े और सुराही की मांग बढ़ जाया करती थी और कुम्हारों का सीजन चल जाता था। मिट्टी के बर्तन का दो घूंट पानी जो गले को एक विशेष महक के साथ तर कर देता था अब उनका चलन प्राय: बंद सा होता नजर आ रहा है। घड़े, करवे, सुराही ही एकमात्र ऐसे साधन थे जिनका शीतल जल लोगों को राहत पहुंचाता था। विवाह आदि समारोह में प्रयोग किए जाने वाले कूल्हड़ का स्थान अब प्लास्टिक के चलन ने छीन लिया है। तीज-त्योहारों पर पूजन आदि मे इस्तेमाल होने वाले मिट्टी के बर्तनों का स्थान अब स्टील के बर्तनों ने ले लिया है। यही दशा दीपावली व अन्य पर्वों पर प्रयोग होने वाले दीये की हो गई है। यही कारण है कि कुम्हारी कला अब शहरों ही नहीं ग्रामीण क्षेत्रों में भी दम तोड़ रही है और इस धंधे से जुड़े हजारों लोग आर्थिक तंगी के चलते भुखमरी के कगार पर आ गए हैं। मिट्टी के बर्तन बनाने के लिए काली मिट्टी भी मिलना अब दुर्लभ हो गई है। किसी तरह मिट्टी की व्यवस्था कर भी ली जाती है तो बर्तनों को पकाने, आवा लगाने और ढुलाई में इतना खर्च आता है कि लागत मूल्य भी नहीं निकल पाता है। नई पीढ़ी के रामकुमार, राकेश कुमार, राजकुमार, नरेश आदि का भी यहीं कहना है कि बढ़ती महंगाई व आवश्यकताओं के चलते अब वह अपना पुश्तैनी काम छोड़ने को मजबूर हैं।