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Terrorist attack on CRPF Group Center : 12 साल से मुकदमे में नहीं हो पा रहा था फैसला, ढाई माह में ही सुना दी सजा Rampur News

पुलिस ने जांच पड़ताल के बाद अदालत में चार्जशीट दाखिल कर दी लेकिन इसके बाद अदालती सुनवाई बेहद ढीली रही।

By Narendra KumarEdited By: Published: Mon, 04 Nov 2019 12:56 AM (IST)Updated: Mon, 04 Nov 2019 09:02 AM (IST)
Terrorist attack on CRPF Group Center : 12 साल से मुकदमे में नहीं हो पा रहा था फैसला, ढाई माह में ही सुना दी सजा  Rampur News
Terrorist attack on CRPF Group Center : 12 साल से मुकदमे में नहीं हो पा रहा था फैसला, ढाई माह में ही सुना दी सजा Rampur News

रामपुर (मुस्लेमीन)। सीआरपीएफ पर हमले में आतंकियों को सजा ए मौत सुनाने वाले न्यायाधीश संजय कुमार ने ढाई माह में ही फैसला कर दिया, जबकि यह मुकदमा 12 साल से विचाराधीन था। हाईकोर्ट ने भी दो बार इसे शीघ्र निस्तारित करने के आदेश दिए, फिर भी जजमेंट नहीं हो सका।  करीब तीन साल तक तो इस मामले में तारीखें ही पड़ती रहीं। इस मुकदमे की सुनवाई दो चार नहीं, बल्कि दस जजों ने की, लेकिन इतनी तेजी से किसी ने नहीं की, जितनी न्यायाधीश संजय कुमार ने। 

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सीआरपीएफ ग्रुप सेंटर पर 31 दिसंबर 2007 की रात आतंकी हमला हुआ था, जिसमें सात जवान शहीद हो गए थे। एक रिक्शा चालक की भी मौत हुई थी। इस हमले की गूंज लखनऊ से लेकर दिल्ली तक सुनाई दी थी। तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती और केंद्रीय गृह मंत्री शिवराज पाटिल भी रामपुर आए थे। इन दोनों ने ही आला अधिकारियों को आतंकियों को शीघ्र गिरफ्तार करने और उन्हें कड़ी सजा दिलाने के निर्देश दिए थे। इस मामले में प्रदेश सरकार ने एटीएस को भी लगाया था। तब पुलिस और एटीएस ने पूरी सक्रियता दिखाई और आठ आरोपितों को गिरफ्तार कर लिया। गवाह अदालत में गवाही देने नहीं आ रहे थे। ऐसे में अदालत को गवाहों के भी वारंट जारी करने पड़े। इसके बाद ही वे अदालत में बयान दर्ज कराने पहुंचे। इसके बाद भी सुनवाई तेजी नहीं पकड़ पाई। इस पर हाईकोर्ट ने 2014 और 2015 में मुकदमे की सुनवाई तेजी से करने और शीघ्र फैसला सुनाने के आदेश दिए। 2016 में सभी गवाहों की सुनवाई पूरी हो गई, लेकिन फैसला नहीं हो सका। करीब तीन  साल तक तारीखें ही पड़ती रहीं। इसके कई कारण रहे। कभी चुनाव तो कभी त्योहारों पर पुलिस की व्यस्तता के चलते मुल्जम पेश नहीं हो सके। कभी वकीलों ने काम बंद रखा तो कभी वकील अदालत में पेश नहीं हुए। 

 मामला लटका हुआ था कि 18 जुलाई 2019 में अपर जिला जज संजय कुमार को इस मुकदमे की सुनवाई करने की जिम्मेदारी मिली। उन्होंने दोनों पक्षों के वकीलों की बहस सुनी। बचाव पक्ष की ओर से अधिवक्ता एमएस खान दिल्ली से पैरवी के लिए रामपुर आते थे, जबकि स्थानीय अधिवक्ता जमीर रिजवी भी उनकी पैरवी कर रहे थे। इसी तरह अभियोजन पक्ष की ओर से जिला शासकीय अधिवक्ता दलङ्क्षवदर ङ्क्षसह डंपी और सहायक जिला शासकीय अधिवक्ता अमित सक्सेना, एटीएस के वरिष्ठ अभियोजन अधिकारी अतुल कुमार ओझा भी अदालत में पैरवी के लिए हर तारीख पर आ रहे थे। दोनों पक्षों को सुनने के बाद संजय कुमार ने 19 अक्टूबर को फैसला सुरक्षित रख लिया।  एक नवंबर को उन्होंने फैसला सुनाया, जिसमें छह अभियुक्तों को दोषी माना और दो अभियुक्तों गुलाब खान और मुहम्मद कौसर को बेकसूर मानते हुए  दोषमुक्त कर दिया। इसके बाद दो नवंबर को उन्होंने सजा के प्रश्न पर दोनों पक्षों के वकीलों को सुना। दो पाकिस्तानी आतंकियों मोहम्मद फारूक और इमरान शहजाद समेत  शरीफ व सबाउद्दीन को फांसी की सजा सुनाई, जबकि जंग बहादुर को उम्रकैद और फहीम अंसारी को 10 साल की सजा दी। 

न्यायाधीश ने गंभीरता से लिया

अदालत ने जिन लोगों को फांसी की सजा सुनाई है, उन्होंने सीआरपीएफ ग्रुप सेंटर पर स्वचालित हथियारों और हैंड ग्रेनेड से हमला किया था, इसे न्यायाधीश ने गंभीरता से लिया। उन्होंने सात  जवानों और रिक्शा चालक की हत्या करने के आरोप में चारों को फांसी की सजा दी। इसके साथ ही स्वचालित हथियारों का इस्तेमाल करते हुए हत्या करने के आरोप में आईपीसी की धारा 27(3) आयुध अधिनियम के तहत भी फांसी की सजा सुनाई। आतंकियों ने हेंड ग्रेनेड दागने के साथ ही एके 47 भी चलाई थी। न्यायाधीश ने 206 पेज के फैसले में माना कि इन  आतंकियों ने देश से युद्ध करने जैसा  जघन्य अपराध किया है। इसलिए इन्हें फांसी सजा दी जाती है। संजय कुमार मार्च 1996 से न्यायिक सेवा में हैं, लेकिन फांसी की सजा पहली बार सुनाई है। बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष श्याम लाल कहते  हैं कि सीआरपीएफ पर हमला कर सात जवानों की हत्या करना जघन्य अपराध है। आतंकियों को फांसी की सजा दिया जाना न्यायोचित है। इससे आम आदमी में सुरक्षा की भावना पैदा होगी ।  

सरकार के खर्च हो गए छह करोड़

सीआरपीएफ पर हमले की सुनवाई को दौरान सरकार का भी खूब पैसा खर्च हुआ। दरअसल इस कांड में शामिल आतंकियों को लखनऊ और बरेली की सेंट्रल जेल में रखा गया था इन्हे महीने में दो बार कोर्ट में पेश किया जाता था। सुरक्षा के भारी भरकम इंतजाम रहते थे। एक तारीख पर ही करीब दो लाख रुपये खर्च हो जाते थे। 12 साल में करीब छह करोड़ रुपये खर्च हो गए।  


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